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तीर्थकर
इन्द्र की दृष्टि अपूर्व थी 1 केश वास्तव में अपवित्र है। आहार में केश आ जाने पर मुनिजन अंतराय मानते हैं । गृहस्थों तक को यह अंतराय मानना आवश्यक कहा गया है, फिर भी वे केश पवित्र थे, क्योंकि भगवान के मस्तक पर उन्होंने बहुत काल तक निवास किया था। प्राचार्य कहते हैं :--
केशान्भगवतो मूनि चिरवासात्पवित्रितान् । प्रत्यच्छन्मषवा रत्नपटल्यां प्रीतमानसः ॥१७-२०४॥
भगवान के मस्तक पर चिरकाल से स्थित रहने के कारण पवित्र हुए केशों को इन्द्र ने प्रेम पूर्ण अंत:करण से रत्नके पिटारे में रख लिया ।
धन्याः केशाः जगद् भर्तुः येऽधिम्र्धमधिष्ठिताः ।। धन्योसौ क्षीरसिन्धुश्च यस्तानाप्स्यत्युपायनम् ॥२०॥
ये केश धन्य हैं जो त्रिलोकीनाथ के मस्तक पर स्थित रहे । यह क्षीर समुद्र भी धन्य है, जो इन केशों को भेट स्वरूप प्राप्त करेगा ।
ऐसा विचार कर इन्द्रों ने उन केशों को सादर क्षीर समद्र में विसर्जन कर दिया । प्राचार्य कहते हैं :---
महतां संश्रयान्ननं यान्तीज्यां मलिना प्रपि ।
मलिनैरपि यत्केशः पूजावाता श्रितैर्गुरुम् ॥२१०॥
मलिन पदार्थ भी महान आत्माओं का आश्रय लेने से इज्या अर्थात् पूजा को प्राप्त होते हैं । भगवान के मलिन (श्यामवर्ण वाले) केशों ने भगवान का आश्रय ग्रहण करने के कारण पूज्यता प्राप्त की।
इस श्लोक के अर्थ पर यदि गहरा विचार किया जाय, तो कहना होगा कि यदि मलिन केश अचेतन होते हुए भगवान के संपर्कवश पूजा के पात्र होते हैं, तो अन्य सचेतन आराधक विशेष भक्ति के कारण यदि पूजा के पात्र कहे जावें, तो इसमें क्या आपत्ति की जा सकती है ?
जिस चैत्र कृष्णनवमी को भगवान ने दीक्षा ली थी, वह दिवस पवित्र माना जाने लगा । जिस वृक्ष के नीचे भगवान ने दीक्षा
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