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तीर्थंकर
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देव का अभिषेक कर रहे हैं । यह अभिषेक बालरूप धारी तीर्थंकर का नहीं है । यह तो सिद्धिवधू को वरण करने के लिए उद्यत प्रबुद्ध, पूर्ण विरक्त जिनेन्द्र के शरीर का अंतिम अभिषेक है । इसके पश्चात् इन वीतरागी जिनेन्द्र का अभिषेक नहीं होगा । आगे ये सदा चिन्मयी विज्ञान गंगा में डुबकी लगाकर आत्मा को निर्मल बनावेंगे । अब तो भेदविज्ञान- भास्कर उदित हो गया है । उसके प्रकाश में ये शरीर से भिन्न चैतन्य ज्योति देखकर उसे विशुद्ध बनाने के पवित्र विचारों में निमग्न हैं ।
दीक्षा - पालकी
आत्मप्रकाश से सुशोभित जिनराज ने मार्मिक वाणी द्वारा सब परिवार को तथा प्रजा को सांत्वना देते हुए अंतः बाह्य नग्नमुद्रा धारण करने का निश्चय किया । वीतराग प्रभु व सुदर्शना पालकी पर विराजमान हो गए । भूमिगोचरी राजाओं ने प्रभु की पालकी सात पैंड तक अपने कन्धों पर रखी । विद्याधरों ने भी सप्त पद प्रमाण प्रभु की पालकी को वहन किया । इसके पश्चात् देवताओं ने प्रभु की पालकी कन्धों पर रखकर आकाश मार्ग द्वारा शीघ्र ही दीक्षावन को प्राप्त किया । यह सिद्धार्थ नामक दीक्षावन अयोध्या के निकट ही था । भगवान का सारा परिवार प्रभु की विरक्ति से व्यथित हो साश्रु नयन था । उसे देख ऐसा लगता था, मानों मोह शत्रु के विजयार्थ उद्योग में तत्पर भगवान को देखकर मोह की सेना ही रो रही हो । चारों ओर वैराग्य का सिंधु उद्वेलित हो रहा था ।
भ्रम निवारण
कोई कोई सोचते हैं, भगवान के प्रस्थान के पावन प्रसंग पर. प्रभु की पालकी उठाने के प्रकरण को लेकर मनुष्यों तथा देवताओं में झगड़ा हो गया था ।
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