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तीर्थंकर
[ ८६ नीराजना
अभिषेक के पश्चात् भगवान की नीराजना (आरती) की गई । भगवान आभूषण, वस्त्र आदि से अलंकृत किए गए थे।
नाभिराजः स्वहस्तेन मौलिमारोपयत्प्रभोः।। महामुकुटबद्धानामधिराड् भगवानिति ॥२३२॥
भगवान् ‘महामुकुटबद्धानां अधिराट्'–महामुकुटबद्ध राजाओं के शिरोमणि हैं, इससे महाराज नाभिराज ने अपने हाथ से प्रभु के मस्तक पर अपना मुकुट लगाया।
शासन-पद्धति
भगवान् ने राज्य पदवी स्वीकार करने के बाद प्रजा के कल्याण निमित्त उनकी आजीविका के हेतु नियम बनाए । उन्होंने प्रत्येक वर्ण को अपने योग्य कर्तव्य पालन का आदेश दिया था ।
स्वामिमा वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत् ।
स पार्थिवैनिहन्तव्यो वर्णसंकोणिरन्यथा ॥१६-२४८॥
उस समय भगवान ने यह नियम प्रचलित किया था, कि जो वर्ण अपनी निश्चित आजीविका का परित्याग कर अन्य वर्ण की आजीविका को स्वीकार करेगा, वह दण्ड का पात्र होगा क्योंकि इससे वर्ण संकरता उत्पन्न होगी। महापुराणकार कहते हैं कि भगवान ने कर्मभूमि के अनुरूप दण्ड की व्यवस्था की थी, जिससे दुष्टों का निग्रह और शिष्टों का परिपालन होता था । दण्ड नीति
दण्ड के विषय में उनका सिद्धांत था :-- दण्डभीत्या हि लोकोऽयमपथं नानुषावति।
युक्तदंडषरस्तस्मात् पार्थिवः पृथिवीं जयेत् ॥१६-२५३॥
दण्ड के भय से लोग कुमार्ग में नहीं जाते इसलिए उचित दण्ड धारक नरेन्द्र पृथ्वी को जीतता है। यह तीर्थकर आदि जिनेन्द्र की नीति थी।
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