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तीर्थकर
[ ६१ को काटने वाला छुरा है" । चौरासी लाख पूर्व की आयु में से तेरासी लाख पूर्व बीत गए । सुमधुर अनुकूल सामग्री के मध्य पता नहीं चला, कि कितना काल चला गया । लौकिक दृष्टिकोण से देखने पर भगवान का कार्य अत्यन्त मधुर और प्रिय लगता था। अपने महान् कुटुम्ब तथा विश्व के विशाल परिवार इन दोनों की चिन्ता, मार्गदर्शन तथा रक्षण कार्य में प्रभु की तन्मयता आज के जगत् को बड़ी अच्छी लगेगी।
परमार्थ दृष्टि में
परमार्थ तत्व की उपलब्धि को जिन्होंने लक्ष्य बनाया है, उनकी अपेक्षा एक तीर्थकर का मोह के मृदुबन्धन में इतने लम्बे काल तक रहा पाना यथार्थ में आश्चर्य की वस्तु थी। कमल के मृणाल तन्तु के द्वारा सिंह के बन्धन की कल्पना जैसी विचित्र है, उसी प्रकार क्षायिक सम्यक्त्वी, अवधिज्ञानी तथा त्रिभुवन में अपूर्व सामर्थ्य संपन्न अन्तर्दृष्टि समलंकृत उज्ज्वल आत्मा का अनात्म पदार्थों में इतना अधिक काल व्यतीत करना कम आश्चर्य की बात नहीं थी। कर्मभूमि का प्रारम्भ काल था । जनता को सच्चे धर्मामृत का रस पानकराकर धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति अविलम्ब आवश्यक थी, किन्तु भगवान का लक्ष्य उस ओर नहीं जा रहा है । प्रहरी स्वयं जागकर सोनेवालों को चोर तथा चोरी से सावधान करता है । मोह रूपी डाकू जीवन के रत्नत्रय को चुराकर उसकी दुर्गति करता है । तीर्थंकर भगवान के तेज, पराक्रम तथा व्यक्तित्व के कारण मोह दुर्बल हो जाता है, यह बात पूर्ण सत्य है, किन्तु यहाँ दूसरी ही बात दिख रही है । प्रहरी पर ही मोह का जादू चल गया प्रतीत होता है। सचमुच में मोह का उदय क्या क्या नहीं करता है ? भगवान प्रजापति हैं, परिवार के स्वामी है, प्राण हैं; इससे वे सबकी रक्षा में संलग्न है । परमार्थ दृष्टि से तत्व दूसरा है । कल्याणालोचना में आत्मा के उद्बोधन हेतु कितनी सुन्दर और सत्य बात लिखी है :
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