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तव को न भवति स्वजन: F त्वं कस्य न बन्धुः स्वजनो वा ॥
भवेत्
श्रात्मा ।
ज्ञायकः शुद्धः ॥४७॥
आत्मन् ! तेरा कोई कुटुम्बी नहीं है, तू किसीका बन्धु या कुटुम्बी नहीं है । तू प्रात्मा ही है. तू अकेला है, ज्ञायक स्वभाव है, निर्मल है ।
श्रात्मा
एकाकी
इन्द्र की चिन्ता
भगवान का हृदय करुणापूर्ण था । इससे पीड़ित प्रजा का करुणाक्रंदन सुनकर वे उनके निवारण तथा सांत्वना प्रदानमें लग गए थे । इस मार्ग से अविनाशी मोक्ष पद की प्राप्ति नहीं होती । संसार में विविध देव, देवताओं को देखने पर पता चलता है, कि उनमें से कुछ जीवों के प्रति ममता, राग तथा मोह में फंस गए और कुछ क्रोधादि के वशीभूत हो गए राग-द्वेष की ओर न झुककर वीतराग भाव पूर्ण मनोवृत्ति जिनदेव की विशेषता है । इस वृत्ति के द्वारा ही मोह का नाश होता है ।
तीर्थकर
गृहस्थाश्रम में वीतराग वृत्ति की उपलब्धि सम्भव है, यह बात भगवान के समक्ष उपस्थित करने की योग्यता किसमें है ? इन्द्र ने अनेक बार इस विषय में सोचा कि भगवान अनुपम सामर्थ्यधारी तीर्थंकर होते हुए भी प्रत्याख्यानावरण कषाय के तीव्रोदयवश परम शान्ति तथा कल्याण प्रदाता सकल संग परित्याग की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं । भगवान से ऐसा निवेदन करना कि प्राप राज्य का त्यागकर तपोवन को जाइये, विवेकी इन्द्र को योग्य नहीं जंचता था । जगत् के गुरु तथा परमपिता उन प्रभुसे कुछ कहना उनके गुरु बनने की ग्रज्ञ चेष्टा सदृश बात होगी ।
संकेत द्वारा सुझाव
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गम्भीर विचार के उपरान्त सौधर्मेन्द्र ने संकेत ( Symbol)
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