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तीर्थकर माता मरुदेवी के स्वप्न में दिखा था, कि उनके मुख में वृषभ ने प्रवेश किया । उसका फल यह था, कि वृषभनाथ भगवान तुम्हारे गर्भ में प्रवेश करेंगे। अन्य तीर्थंकरों के प्रागमन के
शुभ समय वृषभ के आकार के स्थान में गजाकारधारी शरीर का मुख-द्वार से प्रवेश होता है।
जिनेन्द्र जननी के समान सोलह स्वप्न अन्य माताओं को नहीं दिखते हैं । अष्टाङ्ग निमित्त विद्या में एक भेद स्वप्न-विज्ञान है । निरोग तथा स्वस्थ व्यक्ति के स्वप्नों द्वारा भविष्य का बोध होता है । क्षत्रचूड़ामणि काव्य में कहा है--
अस्वप्न पूर्व हि जीवानां न हि जातु शुभाशुभम् ॥२१--प्र. १॥
जीवों के कभी भी स्वप्नदर्शन के बिना शुभ तथा अशुभ नहीं होता है । इस विद्या के ज्ञाताओं की आज उपलब्धि न होने से उस विद्या को अयथार्थ मानना भूलभरी बात है । तुलनात्मक रीति से विविध धर्मों का साहित्य देखा जाय, तो ज्ञात होगा कि भावी जिनेन्द्र शिशु की श्रेष्ठता को सूचित करने वाले उपरोक्त स्वप्न समुदाय जिनमाता के सिवाय अन्य माताओं को नहीं दिखते । इस स्वप्नदर्शन के प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक दृष्टि डालने वाले को जिनेन्द्र तीर्थंकर की श्रेष्ठता स्वयं समझ में आए बिना न रहेगी। माता के गर्भ में पुण्यहीन शिशु के आने पर अमङ्गल स्वप्न पाते हैं।'
१ इस प्रसङ्ग में यह उल्लेख स्मरणयोग्य है, कि धरसेनाचार्य गिरनार की चन्द्र गुफा में थे। प्रभात में उन मुनीन्द्र को स्वप्न पाया था, कि दो धवलवर्णीय वृषभ उनके पास आए, जिन्होंने उनकी तीन प्रदक्षिणा दी और उनके चरणों में पड़ गए। इस स्वप्नदर्शन के उपरान्त उन्होंने कहा"जयउ सुय-देवद."-जिनवाणी जयवंत हो। उसी दिन तिबलि, पुष्पदन्त नाम से आगामी प्रसिद्ध होने वाले मुनि युगल प्राचार्यदेव के समीप आए, जिन्होंने उनको प्रणाम किया (धवला टीका भाग १, पृष्ठ ६८)। धरसेनाचार्य स्वप्नादि अष्टांग निमित्त शास्त्र के पारदर्शी विद्वान् थे । इस कथन के प्रकाश में स्वप्न-विज्ञान का महत्व स्पष्ट ज्ञात होता है ।
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