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तीर्थंकर
महत्व की बात
भगवान् तीर्थंकर परमदेव के शरीर में एक हजार आठ लक्षण पाए जाते हैं । ये उनमें ही पाए जाते हैं, दूसरों में नहीं पाये जाते, श्रतएव ये लक्षण भगवान् की विशेषता रूप हैं । इसी कारण प्रतीत होता है कि भगवान् के नामों के पूर्व में १००८ लिखने की प्रणाली प्रचलित है, जैसे संरंभ, समारंभ, प्रारंभ, मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना पूर्वक क्रोध, मान, माया तथा लोभ कषाय का त्याग करने से (३×३×३× ४=१०८ ) निग्रंथ दिगम्बर जैन मुनियों के नाम के पूर्व १०८ लिखने की पद्धति प्रचार में है ।
पूर्व प्राध्यात्मिक प्रभाव
तीर्थंकर भगवान् का बाल्य अवस्था में भी अद्भुत आध्यात्मिक प्रभाव देखा जाता है । वर्धमान चरित्र में लिखा है, कि चारण ऋद्धिधारी विजय तथा संजय नामक मुनीन्द्रों को किसी सूक्ष्म तत्व के विषय में शंका उत्पन्न हो गई थी । उनको महावीर भगवान् का दर्शन हो गया । तत्काल ही दर्शन मात्र से उनका संदेह दूर हो गया । उन मुनीन्द्रों को भगवान् की छबि का दर्शन महान् शास्त्र के स्वाध्याय का प्रतीक बन गया । यह घटना तीर्थंकरत्व की विशेषता को लक्ष्य में रखने पर ग्राश्चर्यप्रद तो नहीं है, किन्तु इससे यह तत्व स्पष्ट होता है कि भगवान् के शरीर से सम्बन्ध रखने वाले पुद्गल स्कन्धों में असाधारण विशेषता पाई जाती है । जिस शरीर के भीतर ऐसी श्रात्मा विद्यमान है, जिसके चरणों पर देव-देवेन्द्र मस्तक रखकर बारंबार प्रणाम करते हैं, जो शीघ्र ही दिव्यध्वनि द्वारा धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करेंगे, उनके श्रात्मतेज से प्रभावित पुद्गल भी ऐसी विशेषता दिखाता है, जैसी अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती । चारण मुनियों का संदेह - निवारण एक महान् ऐतिहासिक वस्तु बन गई, क्योंकि उक्त घटना के कारण उन्होंने भगवान् का नाम 'सन्मति' रखा था । अशगकवि के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं :
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