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तीर्थकर
तस्यापरधुरथचारणलब्धियुक्तौ। भर्तुर्यती विजय-संजयनामधेयौ ॥ तद्वीक्षणात्सपदि निःसृतसंशयार्थी।
प्रातनतुर्जगति सन्मतिरित्यभिख्यां ॥१६--६२॥वर्धमान चरित्र
तदनंतर चारण, ऋद्धिधारी विजय तथा संजय नामक मुनीन्द्रों ने भगवान् का दर्शन होते ही शीघ्र संशय विमुक्त होने पर जगत में प्रसिद्ध 'सन्मति' नामकरण किया ।
तीर्थंकर के चिन्ह का हेतु
चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियों में समान रूप से दिगम्बरपना तथा वीतराग वृत्ति पाई जाती है । श्रेष्ठ सौन्दर्य पूर्ण होने से उनकी समानता दृष्टिगोचर होती है, ऐसी स्थिति में उनकी परस्पर में भिन्नता का नियामक उनकी मूर्ति में विशेष चिन्ह अंकित किया जाता है; जैसे आदिनाथ भगवान् की मति में वृषभ का चिन्ह पाया जाता है । इस सम्बन्ध में तिलोयपण्णत्ति का यह कथन ज्ञातव्य है कि भगवान् के शरीर सम्बन्धी सुलक्षणों में से प्रभु के दाहिने पैर के अंगुष्ठ में जो चिन्ह पाया जाता है, वही लक्षण उन तीर्थंकर का चिन्ह बना दिया जाता है । कहा भी है :--
जम्मणकाले जस्स दु दाहिण-पायम्मि होई जो चिन्हं। तं लक्षणपाउत्तं प्रागमसुत्तेसुजिणदेहं ।
प्रभु की कुमारावस्था
__महापुराणकार का कथन है कि बाल्यकाल में भगवान् बाल चॅद्रमा के समान प्रजा को आनंद प्रदान करते थे। इसके पश्चात् किशोरावस्था ने उनके शरीर को समंलकृत किया ।
बालावस्थामतीतस्य तस्याभूद् रुचिरं वपुः। कौमारं देवनाथानां प्रचितस्य महौजसः ॥१४-१७४।।
बाल्यकाल व्यतीत होने पर सुरेन्द्र-पूज्य तथा महा प्रतापी भगवान् का कुमार-कालीन शरीर बड़ा सुन्दर लगता था ।
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