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तीर्थकर
[ ७५ वोर्घदर्शी सुदीर्घायुः दीर्घबाहुश्च दीर्घदृक् ।
स दीर्घसूत्रो लोकानां प्रभजत् सूत्रधारताम् ॥१८॥ ___ वे दीर्घदर्शी थे अर्थात् दूर तक की बातें सोचते थे। उनकी प्रायु दीर्घ थी। उनकी भुजाएँ दीर्घ थीं। उनके नेत्र दीर्घ थे। वे स्थिरतापूर्वक विचार के उपरान्त कार्य करते थे, इससे दीर्घसूत्र थे । अतः वे तीनों लोकों की सूत्रधारता अर्थात् गुरुता को प्राप्त हुए थे । इस कथन से यह बात विदित होती है कि सुरेन्द्र समुदाय भी भगवान से मार्गदर्शन प्राप्त करता था । सौरभ समन्वित सुन्दर सुमन के समीप सभी सत्पुरुष रूप मधुकर स्वयमेव अाया करते थे। प्रभु में गम्भीरता थी, साथ में अवस्था के अनुरूप परिहासप्रियता तथा विनोदशीलता भी उनमें थी। समस्त कलाओं और विद्यानों के प्राचार्य प्रभु के समीप पाया करते थे। वे वैयाकरणों के साथ व्याकरण सम्बन्धी चर्चा करते थे, कभी कवियों के साथ काव्य विषय की वार्ता करते थे और कभी वादियों के साथ वादगोष्ठी करते थे।
प्रभु का विनोद
विनोदवश कभी मयूरों का रूप धारण करने वाले नृत्य करते हुए देव-किंकरों को वे भगवान लय के अनुसार ताल देकर नृत्य कराते थे। यह वर्णन कितना मधुर है :
कांश्चिच्च शुकरूपेण समासादितविक्रियान् । संपाठं पाठयंछ्लोकान् अम्लिष्टमधुराक्षरम् ॥१४॥
कभी विक्रिया शक्ति से तोते का रूप धारण करने वाले देवकुमारों को वे प्रभु स्पष्ट तथा मधुर अक्षरों से श्लोक पढ़ाते थे।
हंसविक्रयया कांश्चित् कूजतो मन्द्र गद्गदम् । विसभंग : स्वहस्तेन दत्तः संभावयन्मुहुः ॥१५॥
वे कभी-कभी हंस रूप विक्रिया कर धीरे-धीरे गद्गद् शब्द करने वाले देवों को अपने हाथ से मृणालखण्ड देकर सन्तुष्ट करते
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