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तीर्थकर
[ ५९ विश्व के मध्य अद्भत होती । सारा संसार तो जन्मोत्सव से सुखी हो रहा है और उसी समय भगवान के पिता की मानसिक दशा भयंकर चिन्ता, मनोव्यथा से परिपूर्ण हो यह स्थिति अद्भत होती । प्रभु के मन्मोत्सव में निमग्न सभी थे। कौन उस आनंद की बेला में पिता को बैठकर उनको समझाते रहता तथा उनकी योग्य रीति से रक्षा करता ? ऐसी अनेक विकट परिस्थितियों की कल्पना का भी उदय न हो, इसीलिए प्रतीत होता है विवेकमूर्ति इन्द्र ने सुमेरु के शीश पर पिता को ले जाने की आपत्ति स्वीकार नहीं की। यह भी संभव है कि भगवान के पिता के विषय में उक्त आशंका भ्रममूलक ही हो, फिर भी इन्द्र इस विषय में खतरा मोल लेने को तैयार नहीं था। जैसे जिनजननी को पुत्र वियोग की व्यथा का अनुभव न हो, इसलिए माता को मायामयी बालक सौंपकर सुरराज ने सामयिक कुशलता का कार्य किया था, ऐसी ही विचारकता इन्द्र ने पिता के विषय में प्रयुक्त की थी। ऐसी स्थिति में पूर्वोक्त प्रश्न महत्वशून्य बन जाता है।
जन्मपुरी में उत्सव
सुमेरुगिरि पर तो असंख्य देवी देवताओं ने जन्मोत्सव मनाया यह तो बड़ा सुन्दर कार्य हुअा, किन्तु प्रभु की जन्मपुरी में भी कोई उत्सव मनाया गया क्या ? इसके समाधान में प्राचार्य जिनसेन स्वामी लिखते हैं, “इन्द्र के द्वारा जन्माभिषेक की सब कथा मालूम कर माता-पिता दोनों ही आनंद और आश्चर्य की अंतिम सीमा पर
आरुढ़ हुए। उन्होंने इन्द्र से परामर्शकर बड़ी विभूति पूर्वक पुरवासियों के साथ जन्मोत्सव किया था। सारे संसार को आनन्दित करने वाला यह महोत्सव जैसा मेरु पर्वत पर हुआ था, वैसा ही अन्तःपुर सहित इस अयोध्यापुरी में हुआ । उन नगर वासियों का मानन्द देखकर अपने आनंद को प्रकाशित करते हुए इन्द्रने आनन्द नामक नाटक करने में अपना मन लगाया ।" उस समय इन्द्र ने जो नृत्य किया था, वह अपूर्व था। प्राचार्य कहते हैं, "उस
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