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तीर्थंकर समय अनेक प्रकार के बाजे बज रहे थे। तीनों लोकों में फैली हुई कुलाचलों सहित पृथ्वी ही उसकी रंगभूमि थी। स्वयं इन्द्र प्रधान नृत्य करने वाला था । महाराज नाभिराज आदि उत्तम पुरुष उस नृत्य के दर्शक थे। जगद्गुरु भगवान वृषभदेव उसके आराध्य थे। धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन पुरुषार्थों की सिद्धि तथा परम आनंदमय मोक्ष ही उसका फल था। कहा भी है---
प्रेक्षका नाभिराजाद्याः समाराध्यो जगदगुरुः। फलं त्रिवर्गसंभूतिः परमानंद एव च ॥१४--१०२॥
इन्द्र ही नटराज है
भक्ति के रस में निमग्न होकर जब इन्द्र ने तांडव नृत्य किया, उस समय की शोभा तथा आनंद अवर्णनीय थे। जिस समय वह इन्द्र विक्रिया से हजार भुजाएँ बनाकर नृत्य कर रहा था, उस समय पृथ्वी उसके पैरों के रखने से कंपित होने लगी थी, कुलाचल चंचल हो उठे थे, समुद्र भी मानो आनंद से शब्द करता हुआ नृत्य करने लगा था। नृत्य करते समय वह इन्द्र क्षणभर में एक तथा क्षण भर में अनेक हो जाता था। क्षणभर में सब जगह व्याप्त हो जाता था, क्षणमात्र में छोटासा रह जाता था; इत्यादि रूप से विक्रिया की सामर्थ्य से उसने ऐसा नृत्य किया मानो इन्द्र ने इन्द्रजाल का ही प्रयोग किया हो ।
"इन्द्रजालभिवेन्द्रेण प्रयुक्तमभवत् तदा" ॥१४--१३१॥ भारतीय शिल्पकला में नृत्य के विषय में नटराज की श्रेष्ठ कलामय मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। 'सर्व श्रेष्ठ मूर्ति तंजौर के वृहदीश्वर नामके हिंन्दूमंदिर में हैं। प्रतीत होता है कि भगवान के जन्म महोत्सव पर अलौकिक नृत्य करने वाला इन्द्र ही नटराज के रूप में पूज्यता को प्राप्त हो गया है ।
१ भारतीय मूर्तिकला पृष्ठ १४६, नागरी प्रचारिणी सभा काशी
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