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तीर्थकर कथा है। उन लोगों के जीवन पर उनके धार्मिक साहित्य का प्रभाव है, जिसमें जीववध करते हुए भी उज्ज्वल जीवन निर्माण में बाधा नहीं पाती।
कोयले के घिसने से जैसे धवलता की वृद्धि नहीं होती, उसी प्रकार हिंसा को विविध कल्पनामयी आभूषणों से अलंकृत करने पर भी दुःख, दरिद्रता, सन्ताप आदि की बाढ़ को नहीं रोका जा सकता। भगवान जिनेन्द्र का श्रेष्ठ अहिंसामय जीवन ऐसी विशेषताओं का केन्द्र बनता है, जिसका अन्यत्र दर्शन होना असम्भव है। इन शब्दों के प्रकाश में तीर्थंकर के जन्म सम्बन्धी पूर्वोक्त अतिशय कवि कल्पना प्रसूत अतिशयालंकार न होकर वास्तविक विशेषताएँ प्रतीत होंगे । अहिंसा की सच्ची स्वर्णमुद्रा समर्पण करने पर प्रकृति देवी लोकोत्तर सामग्री दान द्वारा जीवन को समलंकृत करती है। इसमें क्या पाश्चर्य की बात है ?
अतिशय काल्पनिक नहीं हैं
कुछ लोग लोकरुचि को परितृप्त करने के हेतु तीर्थंकर भगवान के जीवन की अपूर्वताओं को पौराणिक कल्पना कहकर उनको दूसरों के समान सामान्य रूपता प्रदान करते हैं । अपूर्वताओं को बदलकर अपूर्णताओं को स्थानापन्न बनाना ऐसा ही अनुचित कार्य है, जैसे सर्वाङ्ग सुन्दर व्यक्ति के हाथ, पांव तोड़कर तथा प्रांख फोड़ कर उसे विकृत बनाना है। जिन्हें आत्मकल्याण ‘इष्ट है, वे भव्यजन वीतराग वाणी पर पूर्ण तथा अविचलित श्रद्धा धारण करते हैं ।
परीक्षा-प्रधानियों के परमाराध्य देवागमस्तोत्र के रचयिता महान तार्किक प्राचार्य समंतभद्र भी भगवान के अतिशयों को परमार्थसत्य स्वीकार करते हुए तथा अपने बृहत्स्वयंभूस्तोत्र में उनका उल्लेख करते हुए प्रभु का स्तवन करते हैं । मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के स्तवन में वे भगवान के रुधिर को शुक्ल वर्ण का स्वीकार करते हुए उनके
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