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तीर्थकर
शरीर को मल रहित कहते हैं। भगवान अरनाथ के स्तवन में वे इंद्र के हजार नेत्र बनाने की पौराणिक कथनी को प्रमाण मानकर उसका उल्लेख करते हैं; किन्तु आज के अल्प अभ्यासी कोई-कोई व्यक्ति इन बातों पर अविश्वास व्यक्त करने में स्वयं को ऐसा कृतार्थ अनुभव करते हैं, जैसे कूपमंडूक समुद्र के सदभाव को मिथ्या बताता हुअा छोटे से जलाशय को ही समुद्र मानता है तथा अपने को ही सत्यज्ञानी अनुभव करता है । कूपमंडुक की दृष्टि से सर्वज्ञ प्रणीत जिनवाणी का रसपान संभव नहीं है । इसके लिए व्यापक तथा गंभोर दृष्टि आवश्यक है । समीक्षक पुरुषार्थी परिश्रम के द्वारा ग्रागम के रहस्य को भली प्रकार जान सकता है ।
सर्वज्ञ वाणी में असत्यका लेश भी नहीं है । परीक्षा की योग्यता के बिना जो परीक्षक बनने का अभिनय करते हैं, उनकी दुर्गति होती है और सत्य की उपलब्धि भी नहीं होती। "भगवान का शरीर पसीना रहित है । मलमत्र रहित है । आहार होते हए भी नीहार नहीं है," इस पागम वाक्य के पीछे यह वैज्ञानिक सत्य निहित है, कि तीर्थकर
आदि विशिष्ट प्रात्माओं की जटराग्नि इस जाति की होती है कि उसमें डाली गई वस्तु रस, रुधिर आदि रूप परिणत हो जाती है। ऐसा तत्व उसमें नहीं बचता है, जो व्यर्थ होने के कारण मल, मूत्र आदि रूप से निकाल दिया जाय ।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जब जठराग्नि मन्द होती है तब मनुष्य के द्वारा गृहीत वस्तु से सार तत्व शरीर को नहीं प्राप्त होता है और प्रायः खाई गई सामग्री बाहर निकाल दी जाती है । इससे खूब खाते हुए भी व्यक्ति क्षीण होता जाता है । इसके ठीक विपरीत स्थिति उक्त महान पुरुषों की होती है। शरीर में प्राप्त समस्त सामग्री का रुधिरादि रूप में परिणमन हो जाता है ।
श्वेत रक्त का रहस्य
भगवान के शरीर में श्वेत रूप धारण करने वाला रुधिर
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