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तीर्थकर
__ भगवान की अनुपम भक्ति कर इन्द्र ने भगवान की सेवा के लिए उनके अनुरूप देवों तथा देवियों को नियुक्त कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया ।
भगवान के जीवन की लोकोत्तरता
__जिस प्रकार चन्द्रमा क्रमश: विकास को प्राप्त होता है, उसी भगवान शिशु-सुलभ मधुरताओं के द्वारा सबको सुख पहुँचाते हुए धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे । उनका विकास लोकोत्तर होते हुए भी पूर्णतया स्वाभाविक था । उनमें जन्म सम्बन्धी दस बातें थीं, जिनको जन्मातिशय कहते हैं । नन्दीश्वर भक्ति में पूज्यपाद प्राचार्य उनकी इस प्रकार परिगणना करते हैं--
नित्यं निःस्वेदत्वं निर्मलता क्षीर-गौर-रुधिरत्वं च । स्वाधाकृति-संहनने सौरूप्यं सौरभं च सौलक्ष्यम् ॥३८॥ अप्रमितवीर्यता च प्रियहितवादित्व-मन्यदमितगणरय । प्रथिता दशसंख्याताः स्वतिशयधर्माः स्वयंभुवो देहस्य ।३६॥
स्वयंभू भगवान के शरीर में नित्य निःस्वेदता अर्थात् पसीनारहितपना था । मल-मूत्र का अभाव था । क्षीर के समान गौरवर्ण युक्त रुधिर था । उनका संहनन वज्रवृषभ नाराच था। समचतुरस्र संस्थान अर्थात् सुन्दर और सुव्यवस्थित अङ्गोपाङ्गों की रचना थी। अत्यन्त सुन्दर रूप था। शरीर सुगन्ध सम्पन्न था। उसमें एक हजार आठ शुभ लक्षण थे, अतुल बल था । वे प्रिय तथा हितकारी वाणी बोलते थे।
तिलोयपण्णत्ति में लिखा है-एदं तित्थयराणं जम्मग्गहणादि उप्पण्णं' (भाग १, गाथा ८६६-८६८, अध्याय ४) । ये दश स्वाभाविक अतिशय तीर्थंकर के जन्म ग्रहण से ही उत्पन्न होते हैं।
लोकोत्तरता का रहस्य
यह शंका की जा सकती है, कि तीर्थंकर को अलौकिक
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