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तीर्थकर
देवों का आवास है । ये ज्योतिषी देव मेरु पर्वत से ११२१ योजन दूर रहकर मेरु की परिक्रमा करते हैं ।
मधुर उत्प्रेक्षा
जब जिननाथ को लेकर देवेन्द्र समुदाय ज्योतिर्लोक के समीप से जा रहा था, उस समय के दृश्य को ध्यान में रखकर कवि प्रर्हदास एक मधुर उत्प्रेक्षा करते हैं-
मुग्धाप्सराः कापि चकार सर्वानुत्कृल दवत्रान् किल धूप चूर्णम् । रथाग्रवासिन्यरुणे क्षिपंती हसति चांगारच्यस्य बुध्या ॥५-३१॥
किसी भोली अप्सरा ने सूर्य सारथि को अंगीठी की अग्नि समझकर उस पर धूपचूर्ण डालकर सबको हास्ययुक्त कर दिया था । सुमेरु की ओर जिनेन्द्रदेव को लेकर जाता हुआ समस्त सुर-समाज ऐसी प्राशँका उत्पन्न करता था, मानो जिनेन्द्र के समवशरण के समान अब स्वर्ग भी भगवान के साथ साथ विहार कर रहा है ।
मेरु पर पहुँचना
ee सौधर्मेन्द्र मेरु पर्वत के शिखर पर जिनेन्द्र भगवान के साथ पहुँच गए । महापुराण में कहा है :- सुरेन्द्र ने बड़े प्रेम से गिरिराज सुमेरु की प्रदक्षिणा की और पांडुकवन में ऐशान दिशा में स्थित पाँडुक - शिला पर भगवान को विराजमान किया । यह शिला सौ योजन लम्बी, आठ योजन चौड़ी और अर्धचंद्रमा के समान आकार वाली है । उस पांडुक वन में आग्नेय दिशा में पांडु कंबला, नैऋत्य दिशा में रक्ताशिला और वायव्य दिशा में रक्तकंवला शिला हैं । सुवर्ण वर्ण वाली पांडुक शिला पर भरतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकर का अभिषेक होता है । रूप्य अर्थात् रजत वर्णवाली पांडुकंबला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकर का ; सुवर्ण वर्ण वाली रक्ताशिला पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकर का तथा रक्त वर्णवाली पांडुकंबला शिला पर पूर्व विदेह के तीर्थंकर का अभिषेक होता है । यह कथन त्रिलोकसार ( माषा
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