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तीर्थकर
६३३, ६३४) में आया है । तत्वार्थराजवार्तिक में पांडुकशिला को पूर्व दिशा में बताया है - "तस्यां प्राच्यां दिशि पांडुकशिला" ( पृ० १२७ ) । वहाँ यह भी लिखा है- “अपाच्यां पांडुकंबलशिला" अर्थात् दक्षिण दिशा में पांडुकंबल - शिला है । " प्रतीच्यां रक्तकंवलशिला" अर्थात् पश्चिम में रक्तकंवलाशिला है । "उदीच्यां प्रतिरक्तकंवलशिला” अर्थात् उत्तरमें प्रतिरक्तकंबलशिला है ।
अकलंक स्वामी ने यह भी लिखा है कि — पूर्व दिशा के सिहासन पर पूर्व विदेह वाले तीर्थंकर का, दक्षिण में भरत वालों का, पश्चिम में पश्चिम विदेहोत्पन्नों का तथा उत्तर के सिंहासन पर ऐरावत क्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरों का चारों निकाय के देवेन्द्र सपरिवार तथा महाविभूतिपूर्वक क्षीरोदधि के १००८ कलशों से अभिषेक करते हैं । कहा भी है- पौरस्त्ये सिंहासने पूर्वविदेहजान्, अपाच्ये भरतजान्, प्रतीच्ये अपरविदेहजान्, उदीच्ये ऐरावतजांस्तीर्थंकराश्चतुर्निकायदेवाधिपाः सपरिवाराः महत्या विभूत्या क्षीरोदवारिपरिपूर्णाष्टसहस्र- कनककलशैरभिषिचंति ( पृ० १२७) ।
तिलोयपणत्ति में लिखा है कि पांडुकशिला पर सूर्य के समान प्रकाशमान उन्नत सिंहासन है । सिंहासन के दोनों पार्थों में दिव्यरत्नों से रचे गए भद्रासन विद्यमान हैं । जिनेन्द्र भगवान को मध्य सिंहासन पर विराजमान करते हैं । सौधर्मेन्द्र दक्षिण पीठ पर और ईशान इन्द्र उत्तर पीठ पर अवस्थित होते हैं । ( गाथा १८२२२३–२८--२६, अध्याय ४ )
उक्त विषय पर त्रिलोकसार की ये गाथाएँ प्रकाश डालती
हैं
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पांडुक - पांडुकंबल - रक्ता तथा रक्तकंबलास्याः शिलाः ।
ईशानात् कांचन - दया- तपनीय - दधिरनिभाः ॥ ६३३ ॥ भरतापरविदे हैरावता पूर्वविदेह - जिननिबद्धाः पूर्वापरदक्षिणोत्तर दीर्घा अस्थिर स्थिरभूमिमुखाः ॥ ६३४ ॥ मध्ये सिंहासनं जिनस्य दक्षिणगतं तु सौधर्मे । उत्तरमीशानेंद्रे भद्रासनमिह त्र्यं वृत्तम् ॥६३६॥
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