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तीर्थंकर
४८ ] मेरु वर्णन
भरतक्षेत्र के जिनेन्द्र का मेरु पर्वत की पाँडुक शिला पर अभिषेक होता है। उस मेरु की नींव एक हजार योजन प्रमाण है। जम्बूद्वीप सम्बन्धी मेरु का नाम सुदर्शन मेरु है । इस मेरु के अधोभाग में भद्रशाल वन है । पाँच सौ योजन ऊँचाई पर नन्दनवन है । पश्चात् साढ़े बासठ हजार योजन की ऊँचाई पर सौमनस वन है। वहाँ से छत्तीस हजार योजन ऊँचाई पर पांडुक वन है । इन चारों वनों में चारों दिशाओं में एक-एक अकृत्रिम चैत्यालय है । एक मेरु सम्बन्धी चारों वनों के सोलह चैत्यालय हैं। विजय, अचल, मंदर तथा विद्यन्माली नाम के चारों मेरुयों के सोलह-सोलह जिनालय मिलकर पांच मेरु सम्बन्धी अस्सी जिनालय आगम में कहे गए हैं। इन अकृत्रिम जिनालयों में अत्यन्त वैभवपूर्ण जीवित जैनधर्म समान मनोज्ञ १०८ जिनबिम्ब शोभायमान होते हैं । राजवातिक में लिखा है--"अर्हतप्रतिमा अनाद्यनिधना अष्टशतसंख्याः वर्णनातीतविभवाः मूर्ता इव जिनधर्मा विराजते" (पृ० १२६)
मह मेरु पर्वत नीचे से इकसठ हजार योजन पर्यन्त नाना रत्नयुक्त है। उसके ऊपर यह सुवर्ण संयुक्त है। त्रिलोकसार में कहा है--
नानारत्नविचित्रः एकषष्ठिसहस्रदेदु प्रथमतः ।
तप्त उपरि भेरुः सवर्णवर्णान्वितः भवति ।।६१८।।
मेरु सम्बन्धी जिनालयों की वंदना करके देव, विद्याधर तथा चारण ऋद्धिधारी मुनीश्वर आत्म-निर्मलता प्राप्त करते हैं । इस सुदर्शन मेरु की चालीस योजन ऊँची चूलिका कही गई है । उस चूलिका से बालाग्र भाग प्रमाण दूरी पर स्वर्ग का ऋजु विमान प्रा जाता है । इस एक लक्ष योजन ऊँचे मेरु के नीचे से अधोलोक प्रारम्भ होता है । मेरु प्रमाण मध्यलोक माना गया है। यही बात राजवातिक में इस प्रकार वर्णित है-“मेरुदयं त्रयाणां लोकानां मानदंड: । तस्याधस्तादधोलोकः । चूलिकामूलादूर्ध्वमूर्ध्वलोकः । मध्यमप्रमाणस्तिर्यग्वि
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