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तीर्थंकर
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उनका महाभिषेक भगवान जिनेन्द्र की बाल्य अवस्था में भी अपार सामर्थ्य को स्पष्ट करता है ।
सुमेरु की धवलरूपता
क्षीर सागर की विपुल जलराशि से व्याप्त सुमेरु पर्वत रत्नपिंजर के स्थान में धवलगिरि की तरह दिखाई पड़ता था । हरिवंशपुराण में कहा है
दृष्टः सुरगणैर्यः प्राग् मंदरो रत्नपिंजरः ।
स एव क्षीरपूरौधैर्धवलीकृतविग्रहः ॥८-- १६८॥
अभिषेक की लोकोत्तरता
जिनेन्द्रदेव के लोकोत्तर अभिषेक के विषय में आचार्य
लिखते हैं
स्नानासनमभून्मेरुः स्नानवारि- पयोम्बुधेः ।
स्नानसंपादका देवाः स्नानमीदृग् जिनस्य तत् ॥८-- १७० ॥ उनके स्नान का स्थल सुमेरु पर्वत था । क्षीर सागर का जल स्नान का पानी था । स्नान कराने वाले देवगण थे । जिन भगवान का स्नान इस प्रकार लोकोत्तर था । महापुराण में कहा है कि शुद्ध जलाभिषेक के पश्चात् विधि-विधान के ज्ञाता इन्द्र ने सुगन्धित जल से भगवान का अभिषेक किया था । इसके पश्चात् क्या हुआ ? इस पर प्रकाश डालते हुए महापुराणकार कहते हैं
कृत्वा गंधोदकैरित्थं श्रभिषेकं सुरोत्तमाः ।
जगतां शातये शांति घोष यामासमुच्चकैः ।।१३--१६७॥
इस प्रकार गंधोदक से भगवान का अभिषेक करने के उपरान्त इन्द्रों ने जगत् की शन्ति के लिए उच्च स्वर से शान्ति मन्त्र का पाठ किया ।
गंधोदक की पूज्यता
भगवान के अभिषेक के गंधोदक को मुनिजन भी आदर की दृष्टि से देखते हैं । कहा भी है
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