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तीर्थकर
माननीया मुनीन्द्राणां जगतामेकपावनी । साव्याद् गंधाम्बुधारास्मान् या स्म व्योमापगायते ॥१३--१९५।।
जो श्रेष्ठ मुनियों द्वारा आदरणीय है, जो जगत् को पवित्र करने वाले पदार्थों में अद्वितीय है और जो आकाशगङ्गा के समान शोभायमान है, ऐसी वह सुगन्धित जल की धारा हम सबकी रक्षा करे ।
इस प्रसङ्ग में कन्नड़ भाषा के महाकवि रत्नाकर का यह कथन स्मरण योग्य है--“हे रत्नाकराधीश्वर ! देवेन्द्र आपकी सेवा में अपना ऐरावत अर्पण कर गौरव को प्राप्त करता है । वह अपनी इन्द्राणी से आपका गुणगान कराता है। आपके अभिषेक के लिए देवताओं की सेना के साथ भक्तिपूर्वक सेवा करता है । श्रद्धापूर्वक छत्र धारण करता है, नृत्य करता है, पालकी उठाता है। जब इन्द्र की ऐसी मार्दवभावपूर्ण परणति है, तब क्षुद्र मानव का अहंकार धारण करना कहाँ तक उचित है ? (रत्नाकरशतक पद्य ८१)
बालरूप भगवान के अलंकार
श्रेष्ठ रीति से त्रिलोकचूड़ामणि जिनेन्द्र का जन्माभिषेक होने के पश्चात् इन्द्राणी ने बाल जिनेन्द्र को विविध आभूषणों तथा वस्त्रादि से समलंकृत किया । भरत तथा ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों के उपभोग में आने वाले रत्नमय आभूषण सौधर्म तथा ईशान स्वर्ग में विद्यमान रत्नमय सींकों में लटकते हुए उत्तम रत्नमय करंडकों अर्थात् पिटारों में रहते हैं । तिलोयपण्णत्ति में इन पिटारों के विषय में लिखा है-"सक्कादि-पूजणिज्जा" अर्थात् ये इन्द्रादि के द्वारा पूजनीय है; 'प्रणादिणिहणा' अर्थात् अनादि निधन है तथा 'महारम्मा' महान् रमणीय हैं। (अध्याय ८, गाथा ४०३, पृ० ८३६, भाग दूसरा)
ये रत्नमय पिटारे वज्रमय द्वादशधारा युक्त मानस्तम्भों में पाए जाते हैं । त्रिलोकसार में भी कहा है-"सौधर्मद्विके तौ मानस्तंभो भरतैरावततीर्थंकरप्रतिबद्धौ स्याताम् ।” सानत्कुमार
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