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तीर्थकर प्रजा का हर्ष बढ़ रहा था । देव आश्चर्य को प्राप्त हो रहे थे। कल्पवृक्ष प्रचुर प्रमाण में प्रफुल्लित पुष्पों की वर्षा कर रहे थे।
अनाहताः पृथुध्वाना दध्वनुदिविजानकाः । मृदुः सुगंधिश्शिशिरो मरुन्मदं तदा ववौ ॥७॥
देवों की दुंदुभि अपने आप ऊँचा शब्द करते हुए बज रहीं थीं। मृदु, शीतल और सुगन्धित पवन मन्द-मन्द बह रहा था ।
प्रचचाल महो तोषात् नृत्यन्तीव चलगिरिः । उद्वेलो जलधिनं अगमत् प्रमदं परम् ॥८॥
उस समय पहाड़ों को कम्पित करती हुई पृथ्वी भी हिलने लगी थी, मानो आनन्द से नृत्य ही कर रही हो । समुद्र की लहरें सीमा के बाहर जाती थीं, जिनसे सूचित होता था कि वह परम ग्रानन्द को प्राप्त हुआ हो ।
मुनिसुव्रत-काव्य में लिखा है :-- गृहेषु शंखाः भवनामराणां धनामराणां पटहाः पदेषु । ज्योतिस्सुराणां सदनेषु सिंहाः कल्पेषु घंटाः स्वयमेव नेदः ॥४--३६॥
प्रभु के जन्म होते ही भवनवासियों के यहाँ शंखध्वनि होने लगी। व्यंतरों के यहाँ भेरीनाद होने लगा । ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद हुमा तथा कल्पवासियों के यहाँ स्वयमेव घंटा बजने लगे।
सौधर्मेन्द्र का विस्मय
उस समय सौधर्मेन्द्र का आसन कम्पित हुआ तथा मस्तक झुक गया था । सौधर्मेन्द्र चकित हो सोचने लगे कि यह किस निर्भय, शंकारहित, अत्यन्त बाल-स्वभाव, मुग्ध-प्रकृति, स्वच्छन्द भाववाले तथा शीघ्र कार्य करने वाले व्यक्ति का कार्य है ?
हरिवंशपुराण में कहा हैप्रासनस्य प्रकपेन दध्यौ विस्मितधीस्तदा । सौधर्मेन्द्रश्चलन्मौलिर्भूत्वा मूर्धानमुषतम् ॥८--१२२॥ अतिबालेन मुग्धेन स्वतंत्रणाशुकारिगा । निर्भयेन विशंकेन केनेदमप्यनुष्ठितम् ॥१२३॥
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