________________
२८ ]
सेवा का पुरस्कार
अब माता का विशेष मनोरञ्जन तथा सेवा आदि का कार्य देवांगनाएं करने लगीं । इन्द्र का एकमात्र यह लक्ष्य था कि देवाधिदेव की सेवा श्रेष्ठ रूप में सम्पन्न हो । इस श्रेष्ठ सेवा तथा भक्ति का पुरस्कार भी तो असाधारण प्राप्त होता है ।
वादिराज सूरि ने एकीभाव स्तोत्र में लिखा है--भगवन् ! इन्द्र ने आपकी भली प्रकार सेवा की इसमें आपकी महिमा नहीं है । महत्व की बात तो यह है कि उस सेवा के प्रसाद से उस इन्द्र का संसार परिभ्रमण छूट जाता है । कहा भी है
इन्द्रः सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते । तस्यैवेयं भवलकरी इलाध्यतामातनोति ॥ २० ॥
तीर्थंकर
शची का प्रद्भुत सौभाग्य
त्रिलोकसार में लिखा है कि सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र, उसकी इन्द्राणी वहाँ से चयकर' एक मनुष्य भव धारण करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं । सौधर्मेन्द्र तो साधिक दो सागर प्रमाण देवा पूर्ण होने के पश्चात, मनुष्य होकर मोक्ष पाता है, किन्तु उसकी पट्टदेवी शची- इन्द्राणी पंचपल्य प्रमाण ग्रायु को भोग मनुष्य होकर शीघ्र मोक्ष जाती है । सागर प्रमाण स्थिति के समक्ष पँच पल्य की आयु बहुत ही कम है । इन्द्राणी के शीघ्र मोक्ष जाने का कारण यह प्रतीत होता है कि जिनमाता और प्रभु इन दोनों की सेवा का अपूर्व तथा उत्कृष्ट सौभाग्य उसे प्राप्त होता है । इस उज्ज्वल कार्य से उसे अपूर्व विशुद्धता प्राप्त होती है । लौकान्तिक देव की पदवी महान है । उनकी स्थिति पाठ सागर है । सर्वार्थसिद्धि के देव लोकोत्तर हैं । उनकी स्थिति तेतीस सागर है । इतने लम्बे काल के पश्चात उन
१ सोहम्मो वरदेवी सलोगवाला य दक्खिणमरिंदा ।
लोयंतिय सव्वट्ठा तदो चुआा णिव्बुदिं जंति ।। ५४८ | | त्रिलोकसार सौधर्मेन्द्र, शची, उनके सोम आदि लोकपाल, दक्षिणेन्द्र, लौकान्तिक, सर्वार्थसिद्धि के देव वहाँ से चय करके नियम से मोक्ष जाते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org