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तीर्थकर आध्यात्मिक शाँति में कोई बाधा नहीं आती। उन्होंने एक सुन्दर दृष्टांत दिया था; एक व्यक्ति सुवर्ण पात्र में रखकर अमृत सदृश मधुर भोजन करता है और दूसरा मृत्तिका पात्र में उस मिष्टान्न का सेवन करता है, अाधार की उच्चता, लघुता से पदार्थ के स्वाद में कोई अन्तर नहीं रहता है, इसी प्रकार देव, नरकादि पर्याय रूप भिन्न आधारों के होते हुए भी सम्यक्ज्ञानी जीव के आत्मरस पान की अलौकिक छटा को कोई भी क्षति नहीं प्राप्त होती ।
गुरगजन्य विशेषता
तीर्थंकर की विशेषता उनके आत्मगत गुणों को दृष्टिपथ में रखकर अवगत करनी चाहिये । महाकवि धनंजय की यह उक्ति कितनी मधुर तथा मार्मिक है :
तस्यात्मजस्तस्य पितेति देव । त्वां येऽवगायन्ति कुलं प्रकाश्य । तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं
पाणौ कृतं हेम पुनस्त्यजन्ति ॥२३॥विषापहार स्तोत्र हे आदि जिनेन्द्र ! जो आपके कुल को प्रकाशित करते हुए आपको नाभिराय के नन्दन कहते हैं, भरतराज के पिता प्रतिपादन करते हैं, इस प्रकार कुल के गौरव-गान द्वारा आपकी महिमा के निरूपण से ऐसा प्रतीत होता है कि वे विशुद्ध सुवर्ण को प्राप्त करके उसकी स्तुति करते हुए उसकी पाषाण से उत्पत्ति का प्रतिपादन करते हैं, अर्थात् कहाँ पाषाण और कहाँ सुवर्ण ! इसी प्रकार कहाँ आपके कुल की कथा और कहाँ आपका त्रिभुवन में अलौकिक जीवन, जिसकी समता कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती है ।
तीर्थंकर भक्ति
पुण्यशाली नरेन्द्र एवं देवेन्द्र भगवान की स्तुति करते हैं । इसमें उतनी अपूर्वता नहीं दिखती, जितनी वीतरागी महाज्ञानी
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