________________
तीर्थंकर
[ २१ 'लग्न में पुण्याह वाचन किया। जिन्हें अनेक संपदाओं की परम्परा प्राप्त हुई है, ऐसे महाराज नाभिराज तथा महारानी मरुदेवी ने हर्षित हो समृद्धियुक्त अयोध्या नगरी में निवास प्रारम्भ किया ।
विश्वदृश्वतयोः पुत्रो जनितेति शतक्रतुः।
तयोः पूजां व्यधात्तोच्चैः अभिषेकपुरस्सरम् ॥१२--८३॥ इन राजदंपति के सर्वज्ञ पुत्र उत्पन्न होने वाले हैं; इसलिए इन्द्र ने अभिषेक पूर्वक उन दोनों की बड़ी पूजा की थी।
रत्न-वृष्टि
भगवान के जन्म के १५ माह पूर्व से उस नगरी में प्रभात, मध्यान्ह, सायंकाल तथा मध्य रात्रि में चार बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती थी। इस प्रकार चौदह करोड़ रत्नों की प्रतिदिन वर्षा हुआ करती थी। महापुराण एवं हरिवंशपुराण में लिखा है कि
१ मैंने देखा था कि, आचार्य शांतिसागर महाराज सदा महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठानों के विषय में पंचाङ्ग देखा करते थे। एक दिन मैंने पूछा था--- "महाराज ! मुहूर्त देखने में क्या सार है ? किसी आदमी के मन में वैराग्य उत्पन्न होते ही उसे दीक्षा देना चाहिये । आप दीक्षा का मुहूर्त क्यों विचारा करते हैं ? " महाराज ने कहा था--"शास्त्र में लिखा है, किस मुहूर्त में दीक्षा देना ठीक है, कब ठीक नहीं है । असमय में जिनकी दीक्षादि विधि हुई है, उनमें अनेकों को हमने भ्रष्ट होते देखा है। अतः विचारकर योग्य समय पर कार्य करना चाहिये।"
आजकल ज्योतिर्विद्या की योग्यता रखने वाले व्यक्ति कम मिलते है। अल्पज्ञानी मुहूर्त-शुद्धि के नाम पर प्रायः अत्यन्त अशुभ काल को ही अविवेकवश शुभ मुहूर्त बता देते है। इसका कुफल देख जन-साधारण भ्रम-वश शास्त्र को ही दोष देने लगते हैं। विचारक व्यक्ति का कर्तव्य है कि सुयोग्य विद्वान् से परामर्श ले अपना कार्य सम्पन्न करे ।
महाराज नाभिराज ने जब योग्य मुहूर्त में अयोध्या महानगरी में प्रवेश किया था, तब अन्य पुरुषों का क्या कर्तव्य है यह स्वयं स्पष्ट हो जाता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org