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तीर्थंकर
तीर्थंकर प्रकृति के बंध में कारण ये सोलह भावनाएं आगम में कही गई हैं; दर्शन-विशुद्धि, विनय सम्पन्नता, शील तथा व्रतों का निरतिचार रूप से पालन करना, अभीक्ष्ण अर्थात् निरन्तर ज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितः त्याग, शक्तितः तप, साधु-समाधि, वैयावृत्यकरण, श्रर्हत भक्ति, श्राचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन - भक्ति, आवश्यका परिहाणि अर्थात् श्रात्मा को निर्मल बनाने वाले आवश्यक नियमों के पालन में सतत सावधान रहना, रत्नत्रय धर्म को प्रकाश में लाने रूप मार्ग प्रभावना तथा प्रवचनवत्सलत्व अर्थात् साधर्मी बन्धुनों में गो-वत्स सम प्रीति धारण करना । इन सोलह प्रकार की श्रेष्ठ भावनाओं के द्वारा श्रेष्ठ पद तीर्थंकरत्व की प्राप्ति होती है । महाबंध ग्रंथ में तीर्थंकर प्रकृति का तीर्थंकर - नाम - गोत्रकर्म कहकर उल्लेख किया गया है, यथा--' -"एदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवो तित्थयरणामागोदं कम्मं बंधदि" (ताम्रपत्र प्रति पृष्ठ ५ ) । उस महाबंध के सूत्र में सोलह कारणभावनात्रों के नामों का इस प्रकार कथन आया है
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कदिहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामागोद-कम्मं बंधदि ? तत्य इमेणाहि सोलसकारणेहि जीवा तित्थरणामा गोदं कम्मं बंधदि । दंसण विसुज्झदाए, विणयसंपण्णदाए, सोलवदेसु णिरदि-चारदाए, प्रावास सु परिहोणदाए 'खणलव पडिमज्झ (बुज्झ ) गदाए', लद्धिसंवेग संपण्णदाए अरहंतभत्तीए, बहुसुदभत्तीए, पवयणभत्तीए, पवयणवच्छलदाए, पवयणप्रभावणदाए, श्रभिवखणं णाणोपयुत्तदाए ।
उपरोक्त नामों में प्रचलित भावनाओं से तुलना करने पर विदित होगा कि यहाँ आचार्य - भक्ति का नाम न गिनकर उसके स्थान में खणलव - पडिबुज्झणदा भावना का संग्रह किया गया है । इसका अर्थ है-क्षण में तथा लव में अर्थात् क्षण-क्षण में अपने रत्नत्रय धर्म के कलंक का प्रक्षालन करते रहना क्षणलव- प्रतिबोधनता है ।
इन सोलह कारणों के द्वारा यह मनुष्य धर्म तीर्थंकर जिन केवली होता है । कहा भी है— जस्स इणं कम्मस्स उदयेण सदेवासुर
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