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तीर्थंकर सम्यग्दृष्टिरेव बध्नाति" (बड़ी टीका पृ० १३४)-उत्कृष्ट स्थिति सहित तीर्थंकर प्रकृति को नरक गति जाने के उन्मुख असंयत सम्यक्त्वी मनुष्य बाँधता है, कारण उसके तीव्र संक्लेश भाव रहता है । उत्कृष्ट स्थिति बंध के लिये तीव्र संक्लेश युक्त परिणाम आवश्यक है । नरक गति में गमन के उन्मुख जीव के तीव्र संक्लेश के कारण तीर्थंकर रूप शुभ प्रकृति का अल्प अनुभाग बंध होगा क्योंकि "सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसेण” (१६३)--शुभ प्रकृतियों का तीव्र अनुभाग बंध विशुद्ध भावों से होता है तथा अशुभ प्रकृतियों का तीव्र अनुभाग बंध संक्लेश से होता है ।
अपूर्वकरण गुणस्थान के छठवें भाग तक शुद्धोपयोगी तथा शुक्लध्यानी मुनिराज के इस तीर्थंकर रूप पुण्य प्रकृति का बंध होता है। वहाँ इसका उत्कृष्ट अनुभाग बंध पड़ेगा। स्थिति बंध का रूप विपरीत होगा अर्थात् वह न्यून होगा।
सोलह कारण भावनाओं में दर्शनविशुद्धि की मुख्यता मानी गई है । पं० आशाधर जी ने सागारधर्मामृत अध्याय ८ के ७३वें श्लोक की टीका में लिखा है---"एकया-असहायया विनयसंपन्नतादि-तीर्थकरत्वकारणान्तर-रहितया, दृग्विशुध्या श्रेणिको नाम मगध महामंडलेश्वरो तीर्थकृत धर्म-तीर्थंकरः भविता भविष्यति" । अर्थात् विनय-संपन्नतादि तीर्थकरत्व के कारणान्तरों से रहित केवल एक दर्शन विशुद्धि के द्वारा श्रेणिक नामक मगधवासी महामंडलेश्वर धर्मतीर्थकर होंगे।
भिन्न-दृष्टि
उत्तरपुराण में प्रकृत प्रसंग पर प्रकाश डालने वाली एक भिन्न दृष्टि पाई जाती है । वहाँ पर्व ७४ में श्रेणिक राजा ने गणधरदेव से पूछा है, मेरी जैन धर्म में बड़ी भारी श्रद्धा प्रगट हुई है तथापि में व्रतों को क्यों नहीं ग्रहण कर सकता ? उत्तर देते हुए गणधरदेव ने कहा--तुमने नरकायुका बंध किया है । यह नियम है कि देवायु के
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