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तीर्थंकर
आ चुका है। श्रेणिक महाराज प्रव्रती थे, क्योंकि वे नरकायुका बंध कर चुके थे । वे क्षायिक सम्यक्त्वी थे । उनके दर्शन - विशुद्धि भावना थी, यह कथन भी ऊपर आया है । महावीर भगवान का सानिध्य होने से केवली का पादमूल भी उनको प्राप्त हो चुका था । उनमें शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, श्रावश्यकापरिहाणि, शील-व्रतों में निरतिचारता सदृश संयमी जीवन से सम्बन्धित भावनाओं को स्वीकार करने में कठिनता आती है, किन्तु अर्हन्तभक्ति, गणधरादि महान् गुरुयों का श्रेष्ठ सत्सङ्ग रहने से प्राचार्य - भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन - भक्ति, मार्ग - प्रभावना, प्रवचन- वत्सलत्व सदृश सद्गुणों का सद्भाव स्वीकार करने में क्या बाधा है ? ये तो भावनाएं सम्यक्त्व की पोषिकाएं हैं । क्षायिक सम्यक्त्वी के पास इनका प्रभाव होगा, ऐसा. सोचना तक कठिन प्रतीत होता है । अतएव दर्शन - विशुद्धि की विशेष प्रधानता को लक्ष्य में रख कर उसे कारणों में मुख्य माना गया है । इस विवेचन के प्रकाश में प्रतीयमान विरोध का निराकरण करना उचित है ।
सम्यग्दर्शन तथा दर्शन-विशुद्धि भावना में भेद इतनी बात विशेष है, सम्यग्दर्शन और दर्शन - विशुद्धिभावना में भिन्नता है । सम्यग्दर्शन आत्मा का विशेष परिणाम है । वह बंध का कारण नहीं हो सकता । इसके सद्भाब में एक लोककल्याण की विशिष्ट भावना उत्पन्न होती है, उसे दर्शन - विशुद्धिभावना कहते हैं । यदि दोनों में अन्तर न हो, तो मलिनता प्रादि विकारों से पूर्णतया उन्मुक्त सभी क्षायिक सम्यक्त्वी तीर्थकर प्रकृति के बंधक हो जाते, किन्तु ऐसा नहीं होता, अतः यह मानना तर्क सङ्गत है, कि सम्यक्त्व के साथ में और भी विशेष पुण्य - भावना का सद्भाव आवश्यक है, जिस शुभ राग से उस प्रकृति का बंध होता है ।
आगम में कहा है कि तीनों सम्यक्वों में तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है, अतः यह मानना उचित है कि सम्यक्त्व रूप
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