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तीर्थंकर
[ ११ नहीं हो सकता है।
केवली के चरणों की समीपता का क्या कारण है ? ____ इस प्रश्न का उत्तर यह होगा कि उन जिनेन्द्र की दिव्य वाणी के प्रसाद से देव, मनुष्य, पशु सभी जीवों को धर्म का अपूर्व लाभ होता है । यह देखकर किसी महाभाग के हृदय में ऐसे अत्यन्त पवित्र भाव उत्पन्न होते हैं कि मिथ्यात्वरूप महा अटवी में मोह की दावाग्नि जलने से अगणित जीव मर रहे हैं, उनके अनुग्रह करने की प्रभो! आपके समान क्षमता, शक्ति तथा सामर्थ्य मेरी भी प्रात्मा में उत्पन्न हो, जिससे मैं सम्पूर्ण जीवों को आत्मज्ञान का अमृत पिलाकर उनको सच्चे सुख का मार्ग बता सकू । इस प्रकार की विश्वकल्याण की प्रबल भावना के द्वारा सम्यक्त्वी जीव तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करता है ।। . विनय-सम्पन्नता, अर्हन्त भक्ति, प्राचार्य भक्ति, प्रवचनभक्ति, मार्ग प्रभावना, प्रवचन वात्सल्य सदृश अनेक भावनाएँ सम्यक्त्वके होने पर सहज ही उसके अङ्ग रूप में प्राप्त हो जाती हैं। जिस प्रकार अक्षरहीन मन्त्र विष वेदना को दूर नहीं कर सकता है, इसी प्रकार अङ्गहीन सम्यक्त्व भी जन्म संतति का क्षय नहीं कर सकता है। ऐसी स्थिति में सम्यक्त्व यदि साँगोपाँग हो तथा उसके साथ सर्व जीवों को सम्यक्ज्ञानामृत पिलाने की विशिष्ट भावना या मङ्गल कामना प्रबल रूप से हो जाय, तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है । दर्शन विशुद्धि भावना परिपूर्ण होने पर अनेक भावनाएं अस्पष्ट रूप से उसकी सहचरी रूप में आ जाती हैं। यदि सहचरी रूप भावनाओं के निरूपण को गौण बनाकर कथन किया जाय, तो तीर्थंकर पद में कारण दर्शन-बिशुद्धि को भी (मुख्य मानकर) कहा जा सकता है।
श्रेणिक राजा का उदाहरण
इस प्रसङ्ग में पहले महामंडलेश्वर राजा श्रेणिक का उदाहरण
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