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तीर्थकर
रूप में तीर्थंकर पद की प्राप्ति में कारण हैं, ऐसा भी अनेक स्थलों में उल्लेख आता है, यथा हरिवंश पुराण में कहा है
तीर्थंकर नामकर्माणि षोडश तत्कारणान्यमूनि । व्यस्तानि समस्तानि भवंति सद्भाव्यमानानि ॥ कलंक स्वामी राजवर्तिक में लिखते हैं :
तान्येतानि षोडशकारणानि सम्यग्भाव्यमानानि व्यस्तानि समस्तानि च । तोर्थ करनामकर्मास्त्रवकारणानि प्रत्येतव्यानि ॥ श्रध्याय ६, सूत्र २४, पृष्ठ २६७॥ इन भावनाओं में दर्शनविशुद्धि का स्वरूप विचार करने पर उसकी मुख्यता स्पष्ट रूप से प्रतिभासमान होती है । तीर्थंकरप्रकृति रूप धर्म - कल्पतरु पूर्ण विकसित होकर सुख रूप सुमधुर फलों से समलंकृत होते हुए अगणित भव्यों को अवर्णनीय श्रानन्द तथा शान्ति प्रदान करता है, उस कल्पतरु की बीजरूपता का स्पष्टरूप से दर्शन प्रथम भावना में होता है ।
दर्शन - विशुद्धि में आगत 'दर्शन' शब्द सम्यग्दर्शन का वाचक है । दर्शन का अर्थ है वे पुण्यप्रद उज्ज्वल भाव, जिनका संक्लेश की कालिमा से सम्बन्ध न हो, कारण विशुद्धभाव से शुभ प्रकृतियों में तीव्र अनुभाग पड़ता है और संक्लेश परिणामों से पाप प्रकृतियों में तीव्र अनुभाग पड़ता है (गो० कर्मकाण्ड गाथा १६३ )
इस सम्बन्ध में यह बात भी ध्यान में रखना उचित है कि तीर्थंकर प्रकृति के बंध रूप बीज बोने का कार्य * केवली - श्रुतकेवली के पादमूल अर्थात् चरणों के समीप होता है । भरत क्षेत्र में इस काल में अब उक्त साधन युगल का प्रभाव होने से तीर्थंकर प्रकृति का बंध
#श्रुत केवली के निकट भी षोड़शकारण भावनाएँ भांई जा सकती हैं । यदि षोडशकारणभावना भाने वाला स्वयं श्रुतकेवली हो, तो उसे अन्य श्रुतकेवली का श्राश्रय ग्रहण करना आवश्यक नहीं होगा । जिसका सानिध्य अन्य व्यक्ति को तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने में सहायक हो सकता है, वह स्वयं उस प्रकृति का बंध नहीं कर सकेगा, ऐसा मानना उचित नहीं प्रतीत होता ।
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