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पुरातन काल में जैन साधुयों का पूर्णतया नग्न रूप में विहार होता था । डाक्टर ज़िमर का यह भी कथन है कि महावीर भगवान के युग में किन्हीं साधुयों ने श्वेत वस्त्र भी धारण किए थे । अर्थात् वस्त्रधारी वर्ग का सूत्रपात पश्चात् हुआ | "Later on in Mahavira's period many assumed a white garment as a concession to decency & termed themselves Svetambara ‘those, whose garment (ambara ) is white (Sveta).” (P. 210 )
भारत में जब सिकन्दर आया था, तब ईसा पूर्व ३२७-३२६ वर्ष में उसने बहुत से दिगम्बर साधुत्रों को देखा था । यह श्रेष्ठ त्याग भगवान ऋषभदेव के जीवन और शिक्षण से अनुप्राणित था ।
समस्त जैन वाङ्मय आत्मनिर्भरता तथा संयम - शीलता की शिक्षा से परिपूर्ण है । अतः तुलनात्मक तत्वज्ञान के अभ्यासी को यह सत्य स्वीकार करना होगा, कि तीर्थकरों की पवित्र शिक्षा का विश्व की विचार धारा पर गहरा प्रभाव पड़ा है ।
यदि सांप्रदायिक भाव से न्याय बुद्धिपूर्वक विशेषज्ञ विश्व साहित्य का परिशीलन करे, तो वह जैन तीर्थकरों के द्वारा विश्व संस्कृति का कितना कल्याण हुआ यह सहज ही जान सकेगा ।
गौतमबुद्ध भगवान महावीर की सर्वज्ञता की चर्चा करते हुए, उसके प्रति शंका या अवज्ञा का भाव न प्रगट कर उसके विषय में अपनी प्राकांक्षा रूप रुचि का भाव व्यक्त करते हैं । मज्झमनिकाय में बुद्धदेव कहते हैं, "हे महानाम ! मैं एक समय राजगृह में गृद्धकूट नामक पर्वत पर बिहार कर रहा था । उसी समय ऋषिगिरि के पास काल शिला ( नामक पर्वत ) पर बहुत से निर्ग्रन्थ ( जैन मुनि ) श्रासन छोड़कर उपक्रम कर रहे थे और तीव्र तपस्या में प्रवृत्त थे । हे महानाम ! मैं सायंकाल के समय उन निर्ग्रन्थों के पास गया और उन से बोला, अहो निर्ग्रन्थ ! तुम आसन छोड़ उपक्रम कर क्यों ऐसी घोर तपस्या की वेदना का अनुभव कर रहे हो । हे महानाम ! जब मैंने उनसे ऐसा कहा तब वे निर्ग्रन्थ इस प्रकार बोले - अहो, निर्ग्रन्थ
1. At the time of Alexander, the Great's raid across the Indus (327-326 B. C. ), the Digambaras were still numerous enough to attract the notice of the Greeks, who called them gymnosophists, "naked philosophers" a most appropriate name ( Phil. of India by Dr. Zimmer, P. 210 )
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