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मैं जबलपुर से सिवनी आया, पिताजी नहीं मिले । उनका शरीर मात्र था; जो निश्चेष्ट था । शास्त्रोक्त बातें सामने आई । “लाख कोड़ की धरी रहेगी, सङ्ग न जै है एक तगा, प्रभु सुमरन में मन लगा-लगा", यह भजन बापाजो गाया करते थे। सचमुच में चैतन्य ज्योति चली गई। शेष सभी पदार्थ जहाँ के तहाँ पड़े रह गए। उनके अंत समय में काम न प्रा पाया, यह विचार मन में मूक वेदना उत्पन्न करता है। अब क्या किया जा सकता है ? मैंने मोचा कि यह तीर्थकर ग्रन्थ उन परम प्रभावशाली, शास्त्रज्ञ एवं धार्मिक नररत्न की पावन स्मृति में ही प्रकाश में लाया जाय । तीर्थकरत्व में कारगरूप षोडश कारण भावनामों के प्रति उनकी महान तथा अपूर्व श्रद्धा थी । उनके लोकोपकारी जीवन में प्रादर्शधार्मिक गृहस्थ की अपूर्व विशेषताओं का सुन्दर सङ्गम था। अतः इस रचना को उनकी पण्य स्मृति रूप में प्रकाश में लाना पतिया उपयुक्त लगा।
सुमेरुचंद दिवाकर
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