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तीर्थकर उदय-काल
इस स्थिति में प्राचार्य रविषेण एक मार्मिक तथा सुयुक्ति समर्थित बात कहते हैं कि जब जगत् में धर्म-ग्लानि बढ़ जाती है, सत्पुरुषों को कष्ट उठाना पड़ता है तथा पाप-बुद्धि वालों के पास विभूति का उदय होता है, तब तीर्थंकर रूप महान् अात्मा उत्पन्न होकर सच्चे आत्म-धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ाकर जीवों को पाप से विमुख बनाते हैं । उन्होंने पद्मपुराण में लिखा है
प्राचाराणां विघातेन कुदृष्टीनां च संपदा। धर्मग्लानि परिप्राप्त मुच्छयन्ते जिनोत्तमाः॥५--२०६॥
जब उत्तम आचार का विघात होता है, मिथ्यार्मियों के समीप श्री की वृद्धि होती है, सत्य धर्म के प्रति घृणा निरादर का भाव उत्पन्न होने लगता है, तब तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं और सत्य धर्म का उद्धार करते हैं ।
तीर्थ का स्वरूप
इस तीर्थंकर शब्द के स्वरूप पर विचार करना उचित है । प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने लिखा है, "तीर्थमागमः तदाधारसंघश्च" अर्थात् जिनेन्द्र कथित आगम तथा आगम का आधार साधुवर्ग तीर्थ है। तीर्थ शब्द का अर्थ घाट भी होता है । अतएव "तीर्थं करोतीति तीर्थंकरः" का भाव यह होगा कि जिनकी वाणी के द्वारा सँसार सिंधु से जीव तिर जाते हैं, वे तीर्थ के कर्ता तीर्थंकर कहे जाते हैं । सरोवर में घाट बने रहते हैं, उस घाट से मनुष्य सरोवर के बाहर सरलतापूर्वक आ जाता है; इसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् के द्वारा प्रदर्शित रत्नत्रय पथ का अवलम्बन लेने वाला जीव संसार-सिन्धु में न डूब कर चिन्तामुक्त हो जाता है।
तीर्थ के भेद
मूलाचार में तीर्थ के दो भेद कहे हैं—एक द्रव्य तीर्थ,
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