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प्रभु लोक के कर्तत्व अथवा कर्मत्व की सृष्टि नहीं करते । वह परमात्मा कर्मों के फल का संयोग भी नहीं जुटाता है । यह सब अपने भावों के अनुसार होता है। वह भगवान किमी के पाप का आदान नहीं करता है
और न पुण्य का प्रदान करता है । अज्ञान (जड़ कर्म) के द्वारा ज्ञान ढंक गया है; इससे जीव मोह युक्त हो जाते है ।
यह गीता का पद्य जैन विचारों से पूर्णतया अभिन्न प्रतीत होता है :---
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निस्पृहः । निर्ममः निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति ॥७१।।
जो पुरुष समस्त कामनामों का त्यागकर निस्पृह होता है तथा ममता पर अहंकार का त्याग करता है, वह शान्ति को प्राप्त करता है।
जैन धर्म में निर्वाण अवस्था को प्राप्त करने के लिए दिगम्बर अवस्था अंगीकार करना आवश्यक माना गया है । बाह्य सामग्री का परित्याग क्यों ग्रावय्यक है, इसको समझने में गीता के ये पद्य विशेष सहायक हो जाते हैं। उनसे दिगम्बरत्व का युक्तिवाद अंतकरण में प्रतिष्ठित होता है :--
ध्यायतो विषयानपुंसः संगस्तष्पजायते ।। संगात् संजायते कामः कामात्कोधोऽभिजायते ॥६०॥ क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति-विभ्रमः। स्मृति-भ्रंशानुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥६३ अध्या० २॥
ह अर्जुन ! विषयों का अनुचिंतन करने वाले पुरुष के चित्तमें उनके प्रति आसक्ति होती है, उससे कामना उत्पन्न होती है, उससे क्रोध भाव पैदा होता है, जिससे मूढ़ता का भाव होता है । इससे स्मृति भ्रमित हो जाती है । उसमे बुद्धिनाश होता है, इससे पुरुष का विनाश हो जाता है।
धनवैभवादि के सद्भाव में प्रासक्ति आदि का होना स्वाभाविक है, इसी से परमहंस सन्यासी दिगम्बर पद को स्वीकार करते हैं। महाभारत में दिगम्बर जैन मुनि का उल्लेख आया है। विप्रराज उत्तंक ने नग्न जैन मुनि को देखा था "सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छन्तं"--- (आदिपर्व अध्याय ३-१२६ पृ० ५७) इससे जैन दिगम्बर साधुओं का महाभारत काल में सद्भाव स्पष्ट होता है।
डा० ज़िमर अपनी शोध से इस निष्कर्ष पर पहुँचे " In ancient times the Jain monks went about completely naked. ( Philosophies of India P. 210 )
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