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नम्बर । ॥ सूत्र श्री प्रश्न व्याकरण अध्ययन ९ वां ॥
(ब्रह्मव्रतको ३२ औपमा) इप्त आरा पर संसारके अन्दर विषयाभिलाषी चक्रवर्त वासुदेव प्रतिवासुदेव, युगलमनुष्य, मंडलीकराजा, और स्ठ सेनापति आदि बडे २ सत्वधारी होने पर भी इस काम भोगसे अतृप्त होते हुवे काल धर्मको प्राप्त हुवे है वह चौरासीकि मोन करते चौरासीमें नमण करते है परन्तु उन्हों कि गीनती आन इन्ही संसारमें कोई भी नहीं करता है परन्तु गीनती उन्हों कि की जाती है कि वह चाहे महाऋद्धिवान हो चाहे स्वल्प ऋद्धिव न हो किंतु जिन्हों महापुरुषोंने यह ब्रह्मचार्यव्रतको धारण कर नव वाड विशुद्ध पालन कर संभूरमण समुद्रको तीरके शेष गंगा नदीके किनारे मा पहुंचे है वह ही जगतमें वीर पुरुष केहलाते है। क्युकि शास्त्रकारोंने इसी प्रभावशाली व्रतकों ३२ ओपमा द्वारे वर्णन किया है वह संक्षप्त यहापर लिखा जाता है।
१ जेसे गृहगण नक्षत्र और तारोंके समुहसे आश्वन मासका चन्द्र शोभताहै इसी माफी अन्य सदगुण समुहसे निर्मल ब्रह्मचार्य व्रत शौभनिक है । और ब्रह्मचार्य व्रत हेसो पूर्णमाके चन्द्रकि माफिक निष्कलंक महात्ववाला है। ." (२) जेसे सर्व प्रकारकि धातुओ के आगरोंभे सुवर्णकै आगर महत्ववाला प्रधान होताहै इसी माफिक सर्व व्रतोंमें महात्ववाला प्रधान हे तो एक बह्मचार्य व्रत ही है।
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