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चारों ही गतियाँ दुखमय हैं और यह पंचमगति सुखमय है । जगत में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है कि जिससे इसकी उपमा दी जा सके; क्योंकि जगत में जितने भी पदार्थ उपमा देने योग्य हैं, यह पंचमगति उन सबसे विलक्षण है, अद्भुत महिमावाली है; इसीकारण इसे अनुपम कहा गया है ।
ध्रुव विशेषण से विनाशीकपने का, अचल विशेषण से परिभ्रमण का एवं अनुपम विशेषण से चारों गतियों में पाई जानी वाली कथंचित् समानता का निषेध व्यवच्छेद इस पंचमगति में हो गया ।
गाथा १
आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में अचल के स्थान पर पाठान्तर के रूप में अमल पद भी दिया है और अचल पद के साथसाथ अमल पद की भी व्याख्या दी है, जो इसप्रकार है
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भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म रूपी मल से रहित एवं शुद्धस्वभाव सहित होने से पंचमगति अमल है ।"
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - इन चार पुरुषार्थों में से धर्म, अर्थ और काम इनको त्रिवर्ग कहते हैं । इन तीनों से भिन्न होने से, विलक्षण होने से मोक्ष को अपवर्ग कहते हैं। इस अविनाशी, अविचल, अमल, अनुपम और अपवर्ग गति को प्राप्त सभी सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार कर आचार्य कुन्दकुन्ददेव इस समयप्राभृत शास्त्र को रचने की प्रतिज्ञा करते हैं ।
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सर्वसिद्धों को नमस्कार करने के हेतु को स्पष्ट करते हुए टीकाकार अमृतचन्द्र कहते हैं कि ' वे सिद्ध भगवान सिद्धत्व के कारण साध्य जो आत्मा, उसके प्रतिच्छन्द के स्थान पर हैं ।' इसी को स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं कि 'जिनके स्वरूप का संसारी भव्यजीव चिन्तवन करके, उनके समान अपने स्वरूप को ध्याकर, उन्हीं के समान हो जाते हैं और चारों गतियों से विलक्षण पंचमगति को प्राप्त करते हैं ।'