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समयसार अनुशीलन
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उत्पन्न होने के कारण चारों गतियों रूप संसार दशा सांसारिक दुःखसुखरूप होती रहती है, बदलती रहती है। सांसारिक सुख भी दुखरूप ही है, तथा दु:खों का रूप भी बदलता रहता है। इसकारण संसार दशा अध्रुव है, चारों गतियाँ अध्रुव हैं।
ध्रुवस्वभाव अलग है और ध्रुवस्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न होनेवाली ध्रुवपर्याय अलग है । ध्रुवस्वभाव तो सदा एकरूप ही रहता है, परन्तु ध्रुवस्वभाव के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली ध्रुवपर्याय सदा एकरूप नहीं रहती, किन्तु एक-सी रहती है। स्वभाव की ध्रुवता एकरूप रहना है और पर्याय की ध्रुवता एक-सी रहना है। यहाँ पर्याय की ध्रुवता की बात है।
त्रिकाली ध्रुव ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा को अनुभूतिपूर्वक जानना, निज जानना और उसमें ही अपनापन स्थापित होना, उसका ही ध्यान करना, उसमें ही लीन हो जाना ही ध्रुवस्वभाव का अवलम्बन है, आश्रय है । इसप्रकार के अवलम्बन से ही ध्रुवपर्याय प्रगट होती है, सिद्धदशा प्रगट होती है । ___ अनादिकाल से इस आत्मा ने निज भगवान आत्मा को तो कभी जाना ही नहीं; मात्र परपदार्थों, उनके भावों और उनके निमित्त से अपने आत्मा में उत्पन्न होनेवाली विकारी पर्यायों को ही जाना-माना है, उनमें ही अपनापन स्थापित किया है और उनका ही ध्यान किया है, तथा यह आत्मा उनमें ही रचा-पचा रहा है ।
बस यही पर का आलम्बन है, पर का आश्रय है और इससे ही अनन्त दु:ख है। पंचमगति में पर का अवलम्बन छूट गया है, एकमात्र त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा का अवलम्बन रह गया है। यही कारण है कि सिद्धदशा सुखमयदशा है, शान्तिमयदशा है, ध्रुवदशा है। ___ अनादिकाल से यह भगवान आत्मा चार गति और चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। परभावों के निमित्त से होनेवाले इस परिभ्रमण के रुक जाने से पंचमगति अचलता को प्राप्त हो गई है ।