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(१३) विशालकीर्ति आदिको षट्दर्शनन्यायका ज्ञाता बनाकर वादियोंपर विजय प्राप्त कराई थी, भट्टारक देवचन्द्र विनयचन्द्र आदिको धर्मशास्त्र पढ़ाकर मोक्षमार्गमें प्रवृत्त किया था और मदनोपाध्यायादिको काव्यके पंडित बनाकर अर्जुनवर्मदेव जैसे रसिक राजाओंकी प्रतिष्ठाका अधिकारी ( राजगुरु ) बना दिया था । पाठक इससे जान सकते हैं कि आशाधरकी विद्वत्ता, पढ़ानेकी शक्ति और परोपकारशीलता कैसी थी । गृहस्थ होने पर भी बडे २ मुनि उनके पास विद्याध्ययन करके अपनी विधातृष्णाको पूर्ण करते थे। उस समयके इतिहासकी यह एक विलक्षण घटना है, जो नीतिके इस वाक्यको स्मरण कराती है "गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः” अर्थात्, गुणवानोंमें उनके गुण ही पूजनके योग्य होते हैं, उनकी उमर अथवा वेष नहीं।
विन्ध्यवर्माका और उनके पीछे उनके पुत्र सुभटवर्माका राज्यकाल समाप्त हो चुकनेपर आशाधरने धारानगरीको छोड़ दी और नलकच्छपुरको अपना निवासस्थान बनाया । नलकच्छपुरमें आ रहनेका कारण उन्होंने अपने प्यारे धर्मकी उन्नति करना बतलाया है,
श्रीमदर्जुनभूपालराज्ये श्रावकसुंकुले । जिनधर्मोदयार्थ या नलकच्छपुरेऽवसत् ॥ ८॥ .