Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चत्रिका टीका प्रथम श्लोक चाहते थे, जन्म जस मरण अादिसे खिन्न होकर उसका निर्मूल उच्छेदन करने के घास्तविक उपाय को जाननेकी जो इच्छा रखते अथवा उसतरहकी योग्यताको धारण करनेवाले थे। उनका यह सर्वांगपूर्ण ज्ञानदान ही अभयदान, तीर्थ, जैनशासन, मोक्षमार्ग प्रादि नामोंसे कहा जाता है उसको अच्छीनरह जानकर तथा समझकर भी सभी लोग उसका यथेष्ट पालन करने में समर्थ नहीं रहा करते। अत एव शक्ति प्रादिक भेदके कारण उसके पालन करने वालोंके अनेक भेद हो सकते हैं। फिर भी मामान्यतया उनको तीन भागोंमें विभक्त कर दिया गया है । प्रथम वे हैं जोकि बतायेगये मार्ग के अनुसार पूर्णतया चलते और श्रीवर्धमान भगवान् की अवस्थाको प्राप्त करने की साधना में तत्पर रहते हैं । दूसरे वे हैं जो कि अन्तरंग या बहिरंग कमजोरियोंसे पराजित रहने के कारण प्रथम प्रकार की साधना में प्रयुत्त न होकर गंजः उसका पालन करते और पूर्ण साधना के स्थान को प्राप्त करलनके प्रयलमें रहा करते हैं। तीसरे के हैं जो कि आंशिक रूपमें भी पालन करने में समर्थ नोकरभी उसमागकी सिद्धि करने का अंतरंग दृढ निश्चय कर चुके हैं। उस मागको ही आत्मकल्याणका सना साधन मानते, फलतः उसी में जिनकी श्रद्धा रुचि और प्रतीति है । अत एव शक्तिभर मार्ग में आगे बढ़ने का ही त्रियोग पूर्वक प्रयत्न किया करते हैं। प्रथम नम्बर वालाको साधु मुनि अनगार आदि शब्दासे कहा जाता है दूसरे नम्बर चालोंको संपतासंयत्त देशवती श्रावक आदि नामों से कहा गया है और तीसरे स्थान पालोको अवत सम्पग्दृष्टि, असंगत, श्राद्ध आदि नामोंसे बोला जाता है ये उतम मध्यम जपन्य स्थान भगवान् के प्ररूपित मार्गपर चलनेकी तरतमताके कारण माने गये है। किंतु तव शान और श्रद्धानकी भवस्थाओं के भेदसे इस भेद प्ररूपणा में अनेक तरहसे प्रकारान्तरता भी है जो कि आगमक अध्ययन से जानी जा सकती है।
ऊपर भगवानकी जिस प्ररूपणा या तीर्थका उल्लेख किया है, जो कि संसार समुद्रसे पार होने का निर्वाध सत्य एवं स्वर्वोत्कृष्ट हित रूप असाधारण साधन है उसीका यहां श्राचार्यप्रवर श्री समन्तभद्रस्वामी वर्णन करना चाहते हैं । किन्तु इस वर्णन के सम्बन्धमें सबसे प्रथम एक बात जानलेना जरूरी है।
प्राचार्यों की यह परम्परा है कि वे धार्मिक देशनाके प्रारम्भमें उसके पूर्ण रूपका ही वर्णन किया करते हैं जिसके कि पालन करनेपर श्रीता भव्य ऊपर लिखे अनुसार प्रथम नम्बरका साधक-साधुमहावती मुनिके रूपमें अपनेको परिणत करके और उस मोक्षमार्गका अभ्यासकर या तो उसी भवसे अथवा कुछ भवोंके वाद संसारसे सर्वथा मुक्त कर लिया करता है । फलतः सबसे पहले मोक्षमार्ग के पूर्ण स्वरूपका वर्णन करना श्रेयस्कर है और मान करना अयोग्य एवं अनुचित माना गया है। क्योंकि पूर्ण स्वरूपको न बताकर यदि संसारसं तरने के प्रांशिक रूपका ही उल्लेख किया जाय
१-बहुशः समस्तविरति प्रदर्शितां यो न जातु गृखाति, तस्यैकदविरतिः कथनीयानेन बाजन ॥१४॥ यो यतिधर्ममकथयस पदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः, तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शित निग्रहस्थानम् ॥१८॥ अक्रामस्थनेन यता प्रोत्सहमानोऽतिदूरपपि शिष्यः, अपदेऽपि संभम प्रसारितो भवति तेन दुर्महिना ९६ पुरुषा।