Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्ड श्रावकाचरा
तरनेवाले हैं किन्तु उनमें स्वयं तरने के साथ साथ दूसरोंको भी तारने की एक निश्चित सामर्थ्य नहीं रहा करती और जो तीर्थ कर सर्वज्ञ होते हैं उनमें ये दोनों ही स्वयं करने और दूसरोंकी भी तारने की सामर्थ्य निश्चित रूपमें पाई जाती है और वह सामर्थ्य भी अपने योग्य समयपर नियत रूप से कार्य किया करती है।
ऊपर जिस सामर्थ्य या योग्यता का उल्लेख किया है वह उनकी अन्तरंग असाधारण श्री कहलाती है। और उनको जी ऋष्ट प्रातिहार्य मरणादि अनुपम विभूति प्राप्त है वह या श्री कहलाती है । इनमें से अन्तरंग श्री प्रधान है। क्यों कि संखार से तारने की सामर्थ्य उसी में हैं तथा बाह्य श्री में भी जी माहात्म्य अतुलित है वह अन्तरंग श्री के कारण ही है। अतएव समीक्षक परीक्षक मुमुक्षुओं के लिए अन्तरंग श्री ही मुख्यतया वन्दना स्तुति नमस्कार आदि का विषय मानी जा सकती है इस श्री से सभी तीर्थकर वर्धमान रहा करते हैं। तदनुसार अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी भी उससे युक्त थे भी श्रीवर्धमान थे । परन्तु उनमें यह विशेषता है कि वे केवल अर्थ की अपेक्षासे ही नहीं अपितु नामनिक्षेप की अपेक्षा से भीम हैं। यही कारण है कि सभी बातों को दृष्टिमें रखकर कृतज्ञ ग्रन्थकतने अपने इस प्राप्ति अन्थकी आदिमें उनका स्मरण किया है और उनको नमस्कार किया है।
श्रीमान भगवान्ने आत्मस्वरूप एवं उससे लगे हुए कमके स्वरूप भेद आदिको भले प्रकार जाना तथा उनके पृथक्करण के उपाय को भी अच्छी तरह जानकर काममें लिया फलतः समस्त कर्मों से उन्होंने अपनेको मुक्त कर लिया। पूर्णतया मुक्त होने के पूर्व उन्होंने उस सम्पूर्ण नत्र एवं रहस्यका उन सभी संमारी जीवोंकर परिज्ञान कराया जो कि उसे जानना १. रत्नत्रयरूप श्रेयोमार्ग और उसके विषयभूत सम्पूर्ण तत्त्व द्रव्य पदार्थ अस्तिकाय एवं सभी सम्बन्धित विषयों का पूरा विवेचन इसी अन्तरंग योग्यता के कारण हुआ करता है।
२. अशोकवृतः सुपुष्पवृष्टि दिव्यध्वनिश्यामरमासनं
। भामण्डलं दुन्दुभिरातपनं मला तिहार्याणि
जिनेश्वराणाम्। संस्कृत पूजापाठ ।
३. आदिश वरणादि कल्याणकों के समय देवों के द्वारा किये जाने वाले ग्राम ग्रहादि रचना रत्न पिता आदि केवलज्ञान के बद विहार कालमें देवकृत अतिशयों का होना आदि, निर्वाण होजानेपर उनकी यथाविधि जन्यक्रिया तथा सिद्धिस्थान की नियुक्ति इत्यादि प्रहण कर लेना चाहिये ।
४. क्योंकि सीर्थकर प्रकृतिके साथ जो प्रायः सभी अविरुद्ध पुण्य प्रकृतियां बन्धती हैं उनका मूल भी वह तीर्थकृत्य भावना ही है। तथा तीर्थकृत्य प्रकृतिके उदय में आनेपर अन्तराय कर्मके नष्ट हो जानेमें पुण्य प्रकृतियां अपन यथावत् निर्विकारूपसे पूर्णतया कार्य करनेमें समर्थ हो जाया करती है। अथवा" पाषाणात्मा तमः केवलं रत्नमृति अनितम्भो भवति च परस्तदृशो रत्नवर्गः । दृष्टिप्राप्त्री इरति स कथं मानरोगं पण प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तम्य तत्वक्तिहेतुः " ( वादिराज सूरित एकीभाव ) ५ - जीवो नगदनेहो ज्वलद्धो तथमप्पणो सम्मं, जहदि जदि रागदाने सो अमाणं लहदि मुद्ध || सच्चे वय अरहंत नेण विधारण खविदकम्ममा विश्वा तधोवदेस मियादा ते नमो तेर्सि॥ प्र०स०अ० १-२१-२२ ।