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भ. सकलकीति
कदिनाइयों की ओर संकेत करते तथा कभी कभी अपनी वृद्धावस्था का भी रोनारोते लेकिन पूर्णसिंह के कुछ समझ में नहीं आता और के बारबार साधु-जीवन धारण करने की उनसे स्वीकृति मांगते रहते ।'
अन्त में पुत्र की विजय हुई और पूर्ण सिंह ने २६ वें वर्ष में अपार सम्पत्ति को तिलाञ्जलि देकर साधु-जीवन अपना लिया। वे प्रात्मकल्याण के साथ साथ जगत्कल्याण की ओर चल पड़े । 'भट्टारक सकलकीत्तिनु रास' के अनुसार उनकी इस समय केवल १८ वर्ष की आयु थी। उस समय भ० पानन्दि का मुख्य केन्द्र नावां (राजस्थान) था और वे आगम ग्रन्थों के पारगामी विद्वान माने जाते थे इसलिए ये भी नंगाघां चले गये और उनके शिष्य बन कर अध्ययन करने लगे। यह उनके साधु जीवन की प्रथम पद यात्रा थी। वहां ये प्राट वर्ष रहे और प्राकृत एवं संस्कृत के ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया, उनके मर्म को समझा और भविष्य में सत-साहित्य का प्रचार-प्रसार ही अपना एक उद्देश्य बना लिया । ३४ वें वर्ष में उन्होंने आचार्य पदवी ग्रहण की और अपना नाम सफलकोत्ति रख लिया ।
नगवां से पुनः वागड़ प्रदेश में आने के पश्चात ये सर्व प्रथम जन-साधारण में साहित्यिक चेतना जाग्रत करने के निमित्त स्थान स्थान पर बिहार करने लगे । एक बार वे खोड़ण नगर आये और नगर के बाहर उद्यान में ध्यान लगाकर बैठ गए । उधर नगर से आई हुई एक बालिका ने जब नग्न माधु को ध्यानस्थ बैठे देखा तो घर जा कर उसने अपनी सास से जिन शब्दों में निवेदन किया--उसका एक पट्टावलि में निम्न प्रकार वर्णन मिलता है:
"एक श्राविका पांगी गया हप्तां तो पांगी मरीने ते मारग प्राच्या ने थाविका स्वामी समो जो हो रहा लेने मन में विचार कर्यो ते भारी सासुजी यात कहेता इता तो वा साधु दीरो थे, ते श्राविका उतावेलि जाई ने पोनी सासुजी ने बात कही जी। सासूजी एक बात कहू ते सचिलो जी । ते मासू कही सु कहे छ बहु । सासूजी एक साधु जीनो प्रसाद छ तेहा साघूजी बैठा छ जी ते कने एक काठ का बर. लन छ जी। एक मोरना पीछीका छे जी तथा साधु बैठा छा जी I तारे सासु ये मन में वीचार करिने रया नी । अहो बहु । रिषि मुनि माया हो से।
१. वयरिण जि सुरवि, पून पिता प्रति इम कहिए । निज मन सुविस करेवि, धीरने तर तप गहए ॥ २२ ।। ज्योवन गिइ गमार, पछइ पालइ सीयल घरणा । ते बहु कबरण विचार विण अवसर जे वरसीयिए । २३ ।।
सकलकोतिरास