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प्रथम अध्याय
हो || राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह-माया आदि मनोविकारो का उन्मूलन करने वाला जिन होता है । जिसे सर्वज्ञ, वीतराग, अर्हन्त, परमात्मा, तीर्थकर आदि अनेक नामो से स्मरण किया जाता हैं ।
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प्रश्न- 'जैन समाज ' किसे कहते हैं ?
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उत्तर- इस वाक्य मे जैन + समाज दो शब्द हैं । जैन उस व्यक्ति को कहते हैं - जो जिन का उपासक है । समाज का अर्थ है व्यक्तियों का समुदाय । ग्रस्तु, जिन भगवान् के उपासक व्यक्तियो, या यो कहिए जिनत्व को साधना के पथ पर गतिशील व्यक्तियो के समूह को जैन समाज कहते हैं । जेन कोई जाति नहीं, समाज है, धर्म है। किसी भी जाति का, रग का, देश का व्यक्ति जैन वन सकता है । भगवान् महावीर के शासन मे सभी जाति के मुनि एव गृहस्य सम्मिलित थे । भगवान् महावीर स्वय क्षत्रिय थे, गौतम स्वामी ब्राह्मण थे, जम्बू स्वामी वैश्य थे और हरिकेगी मुनि चाण्डाल (हरिजन ) थे । सद्गृहस्था मे गकटाल पुत्र कुम्हार थे, आनन्द पटेल (जाट) थे ओर सुलसा वढई जाति को थो | सव के साथ समान व्यवहार होता था, घृणा एव तिरस्कार को भावना नही थी । काश। प्राज के जैन जातिगत सहिष्णुता को कायम रख सकते, तो जैनधर्म उन्नति के शिखर से कभी नहीं गिर पाता ।' प्रश्न- जैन हिन्दू हैं या नहीं ?
उत्तर- यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिसपर हमे जरा गहराई से सो.
1⁄2 १५ प्रकार के सिद्ध होते हैं, १ - नीर्थ-सिद्धा, २-अतीर्थ-सिद्धा, ३-तीर्थकर सिद्धा, ४-प्रतीर्थंकर सिद्धा, ५ स्वयबुद्ध-सिद्धा, ६ प्रत्येक बुद्ध-सिद्धा, ७ बुद्ध-बोधित सिद्धा, स्वलिंग (जैन मुनि वेश में ) सिद्धा, ९ - अन्य - लिंग- सिद्धा (जैनेतर सन्यासियो के वेश में), १० -गृह-लिंग-सिद्धा (गृहस्य के वेग में), ११ - स्त्रीलिंग सिद्धा १२पुरुषलिंग सिद्धा, १३-नपु मकलिंग सिद्धा, १४- एकसिद्धा, १५ - अनक मिद्धा ।