Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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संखिजाइं जोणिप्पमुहसयसहस्साइं। पजत्तगणिस्साए अपजत्तगा वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखिजा। से तं खर बायर पुढवी काइया। से तं बायर पुढवी काइया। से तं पुढवी काइया॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - उवले - उपल, लोणूसे - लवण-ऊष, अय - लोहा, तंब - तांबा, तउय - त्रपुष (जस्ता), सीसय - सीसा, रुप्प - रौप्य, वइरे - वज्र, मणोसिला - मैनसिल, सासग - सासग (पारा), अंजण - अंजन (सुरमा), पवाले - प्रवाल (गुंगिया), अब्भपडल - अभ्रपटल, अब्भवालुयअभ्रबालुक, असंपत्ता - असंप्राप्त, वण्णादेसेणं - वर्णादेश से, सहस्सग्गसो - सहस्रशः-हजारों, विहाणाई - विधान (भेद), जोणिप्पमुह-सयसहस्साई - योनि प्रमुख संख्यात लाख, पजत्तग णिस्साएपर्याप्तकों के निश्राय में।
भावार्थ - प्रश्न - खर बादर पृथ्वीकायिकों के कितने भेद हैं ?
उत्तर - खर बादर पृथ्वीकायिकों के अनेक भेद कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं - १. शुद्ध पृथ्वीनदी तट के पास की भूमि २. शर्करा (कंकर) ३. बालुका (रेत) ४. उपल (टांकी आदि औजारों से घड़ने के अयोग्य पत्थर) ५. शिला-घड़ने के योग्य देवकुल आदि के उपयोगी बड़ा पत्थर ६. लवण (नमक) ७. ऊष (क्षार वाली जमीन) ८. लोहा ९. तांबा १०. त्रपुष (रांगा) ११. सीसा १२. रौप्य (चांदी) १३. सुवर्ण १४. वज्र (हीरा) १५. हडताल १६. हींगलू १७. मैनसिल १८. सासग (पारा) १९. अंजन-सौवीर आदि सुरमा २०. प्रवाल २१. अभ्रपटल (भोडल) २२. अभ्रबालुका, बादर पृथ्वी काय में मणियों के भेद - २३ गोमेजक २४. रुचक २५. अंक २६. स्फटिक २७. लोहिताक्ष २८. मरकत २९. मसारगल्ल ३०. भुजमोचक और ३१. इन्द्रनील ३२. चन्दनरत्न ३३. गैरिक ३४. हंसगर्भ ३५. पुलक ३६. सौगंधिक ३७. चन्द्रप्रभ ३८. वैडूर्य ३९. जलकांत मणि और ४०. सूर्यकांत मणि। इसके अतिरिक्त भी जो अन्य तथा प्रकार के भेद हैं वे सब खर बादर पृथ्वीकायिक समझने चाहिये। वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त। उनमें जो अपर्याप्त है वे असम्प्राप्त (स्वयोग्य सभी पर्याप्तियों को प्राप्त नहीं या विशिष्ट वर्ण आदि को प्राप्त नहीं) है। जो पर्याप्त हैं उनके वर्णादेश (वर्ण की अपेक्षा) से, गंधादेश से, रसादेश से और स्पर्शादेश से हजारों भेद होते हैं और उनके संख्यात लाख योनि प्रमुख (योनिद्वार) हैं। पर्याप्तों के निश्राय (आश्रय) में अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्त होते हैं। इस प्रकार खर बादर पृथ्वीकायिक जीव कहे गये हैं। यह बादर पृथ्वीकाय का निरूपण हुआ। इस प्रकार पृथ्वीकायिकों का वर्णन समाप्त हुआ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में खर बादर पृथ्वीकायिक के भेदों का कथन किया गया है। प्रथम गाथा में पृथ्वी आदि १४ भेद, दूसरी गाथा में हड़ताल (हरताल) आदि आठ भेद, तीसरी गाथा में गोमेध्यक
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