Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आकार में संस्थित, अर्चियों की माला तथा दीप्तियों की राशि के समान वर्ण कांति वाला है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई असंख्यात कोटि योजन की ही नहीं असंख्यात कोटाकोटि योजन की है तथा परिधि भी असंख्यात कोटाकोटि योजन की है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है इत्यादि सब वर्णन यावत् प्रतिरूप है तक समझना चाहिये।
प्रज्ञापना सूत्र
वहाँ सौधर्म देवों के बत्तीस लाख विमानावास हैं ऐसा कहा गया है। वे विमान पूर्ण रूप से रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं तक समझना चाहिये। इन विमानों के बिल्कुल मध्य भाग में पांच अवतंसक (आभूषण रूप या शिखर रूप सर्व श्रेष्ठ) विमान कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - १. अशोकावतंसक २. सप्तपपर्णावतंसक ३. चंपकावतंसक ४. चूत (आम्र) अवतंसक और इन चारों के मध्य में पांचवाँ सौधर्मावतंसक। ये अवतंसक पूर्णतया रत्नमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक सौधर्म देवों के स्थान कहे गये हैं। वे तीनों - उपपात समुद्घात और स्व स्थान की अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं ।
वहाँ बहुत से सौधर्म देव रहते हैं जो कि महाऋद्धि वाले यावत् प्रकाशित करते हुए वे अपनेअपने लाखों विमानों का, अपने अपने हजारों सामानिक देवों का अपने अपने त्रायस्त्रिंशक देवों का इस प्रकार जैसे सामान्य देवों का वर्णन कहा है उसी प्रकार सौधर्म देवों का भी जानना चाहिए यावत् हजारों आत्म रक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से सौधर्म कल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरण करते हैं।
यहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र निवास करता है जो वज्रपाणि (हाथ में वज्र लिये हुए) पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन और लोक के दक्षिणार्द्ध का अधिपति है । वह बत्तीस लाख विमानों का अधिपति, ऐरावत हाथी जिसका वाहन है, देवों का इन्द्र है और रज रहित स्वच्छ वस्त्रों का धारक है संयुक्त माला और मुकुट पहनता है तथा जिसके कपोल स्थल नवीन स्वर्णमय सुंदर विचित्र एवं चंचल कुंडलों से विलिखित होते हैं। महा ऋद्धि वाला यावत् दशों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ बत्तीस लाख विमानों का, चौरासी हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, सपरिवार आठ अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, चार चौरासी हजार अर्थात् तीन लाख छत्तीस हजार आत्म रक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से सौधर्म कल्पवासी वैमानिक देव और देवियों का आधिपत्य एवं अग्रेसरत्व करता हुआ यावत् विचरण करता है।
विवेचन - प्रश्न शक्रेन्द्र को 'सयक्कड' ( शतक्रतु) क्यों कहा गया है ?
उत्तर - 'शतक्रतु' शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है -
"शतं क्रतूनां प्रतिमानाम् - अभिग्रह - विशेषाणां श्रमणोपासक पञ्चम प्रतिमारूपाणां वा
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