Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 345
________________ ३३२ प्रज्ञापना सूत्र ******************************************************** * * * ___एएसि णं भंते! जीवाणं आभिणिबोहिय णाणीणं सुय णाणीणं ओहि णाणीणं मणपज्जव णाणीणं केवल णाणीणं मइ अण्णाणीणं सुय अण्णाणीणं विभंग णाणीणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणपजव णाणी, ओहि णाणी असंखिज गुणा, आभिणिबोहिय णाणी सुयणाणी दोवि तुल्ला विसेसाहिया, विभंग णाणी असंखिज गुणा, केवल णाणी अणंत गुणा, मइ अण्णाणी सुय अण्णाणी य दो वि तुल्ला अणंतगुणा॥१० दारं ॥१७९॥ __ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या . विशेषाधिक हैं। उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े मनः पर्यवज्ञानी जीव हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुणा हैं, उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी परस्पर तुल्य और विशेषाधिक हैं, उनसे विभंगज्ञानी असंख्यात गुणा हैं, उनसे केवलज्ञानी अनंत गुणा हैं, उनसे मति अज्ञानी और श्रुतअज्ञानी अनंत गुणा है और परस्पर तुल्य हैं। _ विवेचन - ज्ञानी और अज्ञानी का शामिल अल्पबहुत्व - १. सबसे थोड़े मनःपर्यवज्ञानी हैं २. उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा है ३. उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक और परस्पर तुल्य है इसका कारण उपरोक्तानुसार है ४. उनसे विभंगज्ञानी असंख्यात गुणा हैं क्योंकि देव गति और नरक गति में सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि असंख्यात गुणा कहे गये हैं और देवों और नैरयिकों में सम्यग्दृष्टि जीव अवधिज्ञानी और मिथ्यादृष्टि जीव विभंगज्ञानी होत हैं अतः असंख्यात गुणा कहा गया है ५. उनसे केवलज्ञानी अनंत गुणा है क्योंकि सिद्ध भगवान् अनन्त हैं ६. उनसे मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी अनन्त गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्त गुणा हैं और वे मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी हैं तथा स्वस्थान की अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं। || दसवां ज्ञान द्वार समाप्त॥ ११. ग्यारहवां दर्शन द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं चक्खुदंसणीणं अचक्खुदंसणीणं ओहिदंसणीणं केवलदसणीणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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