Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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१०. दसवां ज्ञान द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं आभिणिबोहिय णाणीणं सुय णाणीणं ओहि णाणीणं मणपज्जव णाणीणं केवल गाणीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणपजव णाणी, ओहि णाणी असंखिज गुणा, आभिणिबोहिय णाणी सुय णाणी दोवि तुल्ला विसेसाहिया, केवल णाणी अणंतगुणा ॥१७७॥ ___ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े मनःपर्यवज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा हैं, उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और परस्पर तुल्य हैं उनसे केवलज्ञानी अनन्त गुणा हैं।
विवेचन - प्रश्न - ज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तर - ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्तु तत्त्वं अनेन इति ज्ञानः।"
अर्थ - संस्कृत में "ज्ञा अवबोधने" धातु है जिसका अर्थ है जानना। ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति ऊपर दी गयी है। जिसका अर्थ है जिससे वस्तु तत्त्व का अवबोध (जाणपणा)हो उसे ज्ञान कहते हैं। ज्ञान के पांच भेद हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यव ज्ञान और केवलज्ञान।
सम्यक्त्व द्वार के बाद अब ज्ञान द्वार कहा जाता है - सबसे थोड़े मन:पर्यवज्ञाती हैं क्योंकि आमर्ष औषधि आदि ऋद्धि प्राप्त संयतों को ही मन:पर्यवज्ञान होता है, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अवधिज्ञान नारक, संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देवों को भी होता है। उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी(मतिज्ञानी) और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं क्योंकि संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों में जो अवधिज्ञान से रहित हैं। उनमें से भी कईयों को आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान होता है और स्वस्थान की अपेक्षा दोनों परस्पर तुल्य हैं क्योंकि जहाँ मतिज्ञान है वहाँ श्रुतज्ञान अवश्य है और जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ मतिज्ञान अवश्य है-ऐसा शास्त्र वचन है। उनसे केवलज्ञानी अनंत गुणा हैं क्योंकि सिद्ध भगवान् अनन्त हैं।
एएसि णं भंते! जीवाणं मइ अण्णाणीणं सुय अण्णाणीणं विभंग णाणीणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?
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