Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 391
________________ ३७८ प्रज्ञापना सूत्र ***************** ************************************************************** अर्थ - वस्तु को पूर्ण करना फिर काल मर्यादा के उपरान्त बिखर जाना यह पुद्गलों का धर्म है। इसके चार भेद हैं - १. स्कन्ध २. स्कन्ध देश ३. स्कन्ध प्रदेश और ४. परमाणु पुद्गल। यह परमाणुओं के मिलने से स्कन्ध बनता है और बड़े स्कन्ध के टुकड़े होने से यह भी स्कन्ध बनता है। इन में या पुद्गल में वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श पाये जाते हैं। यही मूर्त (रूपी) का लक्षण है। अर्थात् जिसमें वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श पाये जाय उसे रूपी कहते हैं। रूपी होने पर भी कोई पुद्गल दिखाई देता है कोई दिखाई नहीं देता है - जैसे कि - परमाणु, असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध और सूक्ष्म अनन्त प्रदेशी स्कन्ध ये सब छद्मस्थ जीव के इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होते हैं। बादर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध ही इन्द्रिय ग्राह्य होते हैं। ___पुद्गल द्वार में पुद्गलों का अल्पबहुत्व कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र की अपेक्षा पुद्गल का अल्पबहुत्व इस प्रकार हैं - १. सबसे थोड़े पुद्गल द्रव्य रूप से तीन लोक में हैं क्योंकि तीन लोक में । व्याप्त अचित्त महास्कंध आदि सबसे थोड़े हैं। २. उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में अनन्त गुणा हैं ' क्योंकि अनन्त संख्यात प्रदेशी, अनन्त असंख्यातप्रदेशी और अनन्त अनन्तप्रदेशी स्कंध ऊर्ध्वलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतर का स्पर्श करते हैं अत: अनंत गुणा हैं ३. उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं। यद्यपि ऊर्ध्वलोक तिर्यकलोक के दो प्रतरों की अपेक्षा अधोलोक तिर्यकलोक के प्रतर छोटे हैं, क्योंकि अधोलोक में ७ रज्जु जाने पर लोक का ७ रज्जु का विस्तार होता है जबकि ऊर्ध्वलोक में ३॥ रजु जाने पर ही लोक का विस्तार पांचवें देवलोकं के पास ५ रज्जु हो जाता है, अत: ऊर्ध्वलोक में विस्तार वृद्धि अधिक हुई है इसलिए ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक का प्रतर बड़ा है तथापि अधोलोक तिर्यक्लोक में पुद्गल अधिक हैं। क्योंकि उक्त दोनों प्रतर समुद्र में आये हुए होने से बादर निगोदादि से संबंधित कर्म स्कन्धादि रूप पुद्गल वर्गणा बढ़ जाने से विशेषाधिक हैं। ४. उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक का क्षेत्र असंख्यात गुणा हैं अतः पुद्गल भी असंख्यात गुणा हैं। ५. उनसे ऊर्ध्व लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक से ऊर्ध्वलोक का क्षेत्र असंख्यात गुणा होने से पुद्गल भी असंख्यात गुणा हैं। ६. उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक का क्षेत्र विशेष अधिक है। ऊर्ध्वलोक सात राजू से कुछ कम है अधोलोक सात राजू से कुछ अधिक है अतः पुद्गल भी विशेषाधिक हैं। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पुग्गला उड्ढदिसाए, अहोदिसाए विसेसाहिया, उत्तरपुरच्छिमेणं दाहिणपच्चत्थिमेण उ दोवि तुल्ला असंखिजगुणा, दाहिणपुरच्छिमेणं उत्तरपच्चत्थिमेण य दोवि तुल्ला विसेसाहिया, पुरच्छिमेणं असंखिजगुणा, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। ___ भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा सबसे थोड़े पुद्गल ऊर्ध्वदिशा में हैं, उनसे अधोदिशा में विशेषाधिक हैं, उनसे उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) में और दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) में असंख्यात Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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