Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 392
________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - पुद्गल द्वार ३७९ ******** ******************************************************* ************* *** गुणा और दोनों विदिशाओं में परस्पर तुल्य हैं, उनसे दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) में और उत्तरपश्चिम (वायव्य कोण) में परस्पर तुल्य और विशेषाधिक हैं, उनसे पूर्व दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं, उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक है और उनसे उत्तरदिशा में विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में दिशा की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है - १. सबसे थोड़े पुद्गल ऊर्ध्वदिशा में हैं क्योंकि रत्नप्रभा के समतल मेरुप्रदेश में आठ रुचक प्रदेश हैं उनसे चार प्रदेश वाली ऊर्ध्वदिशा लोकान्त तक गई हुई है अत: ऊर्ध्वदिशा में पुद्गल सबसे थोड़े हैं। २. उनसे अधोदिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि अधोदिशा भी चार प्रदेश वाली है वह भी रुचक प्रदेशों से निकल कर नीचे लोकान्त तक गई है। अधोदिशा का क्षेत्र ऊर्ध्वदिशा से विशेषाधिक है अतः अधोदिशा में पुद्गल भी विशेषाधिक हैं। ३. उनसे उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) और दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) दिशा में परस्पर तुल्य असंख्यात गुणा हैं क्योंकि ये दोनों दिशाएँ रुचक प्रदेश से निकली हैं, मुक्तावली के आकार की हैं और तिर्यक्लोक ऊर्ध्वलोक और अधोलोक पर्यन्त गई हैं। इन दिशाओं में अधोदिशा की अपेक्षा असंख्यात गुणा क्षेत्र है अतः पुद्गल भी असंख्यात गुणा हैं। दोनों दिशाओं का क्षेत्र बराबर है अतः दोनों दिशाओं के पुद्गल भी बराबर हैं अतः परस्पर तुल्य हैं। ४. उनसे दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) और उत्तर-पश्चिम (वायव्य कोण) में परस्पर तुल्य विशेषाधिक हैं. क्योंकि यहाँ सौमनस और गंधमादन पर्वतों पर सात-सात कूट हैं जबकि ईशान कोण और नैऋत्य कोण में विद्युत्प्रभ और माल्यवान पर्वत पर नौ नौ कूट हैं। सौमनस और गंधमादन पर्वत पर दो-दो कूट कम होने से बूंवर और ओस आदि के सूक्ष्म पुद्गल बहुत हैं अत: विशेषाधिक हैं। दोनों दिशाओं में क्षेत्र समान है अत: परस्पर तुल्य हैं। ५. उनसे पूर्व दिशा में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि पूर्व दिशा का क्षेत्र असंख्यात गुणा होने से इसमें पुद्गल भी असंख्यात गुणा हैं। ६. उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि पश्चिम दिशा में अधोलौकिक ग्रामों में पोलार बहत है इसलिये इनमें बहत पदगल हैं अत: विशेषाधिक हैं। ७. उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि दक्षिण दिशा में भवनपतियों के भवन बहुत हैं उनमें पोलार बहुत हैं अतः पुद्गल विशेषाधिक हैं। ८. उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि उत्तर दिशा में संख्यात कोटा-कोटि (कोड़ा-कोड़ी) योजन प्रमाण मानससरोवर हैं जिसमें सात बोल (समुच्चय जीव, अप्काय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय) के जीव बहुत हैं उनमें तैजस कार्मण पुद्गल अधिक पाये जाते हैं अतः विशेषाधिक हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाइं दव्वाइं तेलोक्के, उड्डलोयतिरियलोए अणंतगुणाई, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहियाई, उड्डलोए असंखिजगुणाई, अहोलोए अणंतगुणाई, तिरियलोए संखिजगणाई। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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