Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

Previous | Next

Page 411
________________ प्रज्ञापना सूत्र ३९८ ************* *********************************************************************** जितने होते हैं। इनके लिए प्रतिपतित सम्यग्दृष्टि शब्द कहा गया है जिसका अर्थ – 'सम्यक्त्व से गिरा हुआ' होता है। अर्थात् जिसने एक बार सम्यक्त्व को प्राप्त करके छोड़ दिया है, वह जब तक पुनः सम्यक्त्व प्राप्त नहीं करे तब तक ही प्रतिपतित सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। ऐसा अर्थ मानने पर ही आगे का सिद्धों का बोल अनन्तगुणा हो सकता है। अतः प्रतिपतित सम्यग् दृष्टि में प्रथम एवं तृतीय गुणस्थानवी जीवों को ही ग्रहण करना आगम से उचित ध्यान में आता है। . (७६) उनसे सिद्ध अनन्तगुणा हैं वे मध्यम अनन्तानंत (आठवें अनन्त) जितने होते हैं। श्री चन्द्रर्षि रचित 'पंचम संग्रह ग्रन्थ' गुजराती अनुवाद विवेचन सहित जो म्हेसाणा (गुजरात) से प्रकाशित हुआ है। इसके विवेचन में सिद्धों की संख्या मध्यम अनन्तानन्त जितनी बताई गई है तथा ऐसा मानना उचित ही लगता है। लोक प्रकाश' नामक ग्रन्थ में एक पुरानी गाथा उद्धृत की है - जिसमें सिद्धों को पांचवें अनन्त जितना बताया गया है। परन्तु आठवें अनन्त में मानना ही आगम पाठों को देखते हुए निराबाध ध्यान में आता है। __ (७७) उनसे बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक अनन्त गुणा हैं। इस बोल में सभी साधारण वनस्पतिकायिक (बादरनिगोद) के पर्याप्त जीवों का तथा पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों का ग्रहण हुआ है। एक बादर निगोदवर्ती जीवों की संख्या भी सिद्धों से अनन्तगुणी होती है, जबकि यहां पर तो असंख्य बादर निगोदों के अनन्तानन्त जीवों का ग्रहण है। अत: सिंद्धों से अनन्त गुणा होना सुस्पष्ट है। (७८) उनकी अपेक्षा सामान्यतः बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें बादर पर्याप्तकपृथ्वीकायिकादि का भी समावेश हो जाता है। (७९) उनसे बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं, क्योंकि एक एक बादर निगोद पर्याप्तक के आश्रय से असंख्यात-असंख्यात बादर निगोद-अपर्याप्तक रहते हैं। (८०) उनकी अपेक्षा बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें बादर अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक आदि का भी समावेश हो जाता है। (८१) उनसे सामान्यतः बादर विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पर्याप्तक-अपर्याप्तक दोनों प्रकार के बादर जीवों का समावेश हो जाता है। (८२) उनकी अपेक्षा सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं। बादर जीवों से सूक्ष्म जीव स्वभाव से असंख्यात गुणा होते हैं। (८३) उनसे सामान्यतः सूक्ष्म अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म अपर्याप्तक पृथ्वीकायादि का भी समावेश हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 409 410 411 412 413 414