Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 409
________________ ३९६ ************ प्रज्ञापना सूत्र ****************** सौधर्म कल्प की देवियाँ संख्यात गुणी, पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार सौधर्मकल्प की देवियाँ देवों से बतीस गुणी एवं बत्तीस अधिक होने से संख्यात गुणी हैं। (२९) इनकी अपेक्षा भवनवासी देव असंख्यात गुणा हैं। अंगुल प्रमाण सूचि श्रेणी के प्रथम वर्गमूल के संख्यातवें भाग प्रमाण प्रदेशों के तुल्य भवनपतियों का प्रत्येक निकाय है। दसों निकाय मिलकर भी प्रथम वर्गमूल के संख्यातवें भाग प्रमाण विष्कम्भ सूचि के प्रदेश तुल्य होते हैं। (३०) देवों की अपेक्षा देवियाँ बत्तीस गुणी एवं बत्तीस अधिक होती है, इस कारण भवनवासी देवियाँ संख्यात गुणी हैं। (३१) उनकी अपेक्षा रत्नप्रभापृथ्वी के नारक असंख्यातगुणा हैं। वे अंगुलमात्र परिमित क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल की जितनी प्रदेश राशि होती है उतनी श्रेणियों में रहे हुए आकाश प्रदेशों के बराबर कुल नैरयिक जीव हैं उसमें से एक असंख्यातवें भाग की विष्कम्भ सूचि के प्रदेश तुल्य प्रथम नरक के नैरयिक जीव होते हैं। (३२) उनकी अपेक्षा खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंच पुरुष असंख्यात गुणा हैं, क्योंकि वे प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों के आकाश प्रदेशों के बराबर हैं। (३३) उनकी अपेक्षा खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंच स्त्रियाँ संख्यात गुणी हैं, क्योंकि तिर्यंचों में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियाँ तीन गुणी और तीन अधिक होती हैं। (३४) इनकी अपेक्षा स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक पुरुष संख्यात गुणा हैं, क्योंकि वे बृहत्तर प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों की आकाश-प्रदेशराशि के बराबर हैं। (३५) इनकी अपेक्षा स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच स्त्रियाँ पूर्वोक्त युक्ति से संख्यात गुणी हैं। (३६) उनकी अपेक्षा जलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यंचपुरुष संख्यात गुणा अधिक हैं, क्योंकि वे बृहत्तम प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों की आकाश प्रदेश राशि के तुल्य हैं। (३७) उनकी अपेक्षा जलचरतिर्यंचपंचेन्द्रिय स्त्रियाँ पूर्वोक्त युक्ति से संख्यात गुणी हैं। (३८-३९) उनकी अपेक्षा वाणव्यन्तर देव एवं देवी उत्तरोत्तर क्रमशः संख्यात गुणा हैं। क्योंकि संख्यात योजन कोटाकोटि प्रमाण सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने ही सभी व्यन्तरदेव देवियाँ हैं। उनमें से लगभग एक तेतीसवें भाग जितने देव होते हैं। देवियाँ देवों से बत्तीसगुणी और बत्तीस अधिक होती हैं। (४०) उनकी अपेक्षा ज्योतिष्क देव संख्यातगुणा अधिक हैं, क्योंकि वे सामान्यतः २५६ अंगुलप्रमाण सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने कुल ज्योतिषी देव देवियाँ है उनके एक तेतीसवें भाग जितने ज्योतिषी देव होते हैं। (४१) उनसे ज्योतिषी देवियाँ संख्यात गुणी पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार इनसे ज्योतिष्क देवियाँ बत्तीस गुणी और बत्तीस अधिक है। (४२-४३-४४) उनकी अपेक्षा खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंच नपुंसक, स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंच-नपुंसक, जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच नपुंसक, क्रमशः उत्तरोत्तर संख्यात गुणा हैं। घनीकृत लोक के एक प्रतर के छोटे-छोटे (क्रमशः आगे आगे संख्यातगुण हीन) अंगुल के संख्यातवें भाग रूप प्रतर खण्डों के तुल्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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