Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीसरा बहुवक्तव्यता पद - पुद्गल द्वार
३७७
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विशेषाधिक हैं १०. उनसे असातावेदक विशेषाधिक हैं क्योंकि इन्द्रिय उपयोग वाले भी असातावेदक होते हैं। ११. उनसे असमवहत विशेषाधिक हैं क्योंकि साता वेदक भी असमवहत (समुद्घात नहीं किये हुए) होते हैं १२. उनसे जागृत विशेषाधिक हैं क्योंकि कितनेक समवहत भी जागृत होते हैं १३. उनसे पर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि कितनेक सुप्त भी पर्याप्तक होते हैं। सुप्त पर्याप्तक सुप्त भी होते हैं किन्तु जागृत पर्याप्तक ही होते हैं ऐसा नियम है १४. उनसे आयुष्य कर्म के अबंधक विशेषाधिक हैं क्योंकि अपर्याप्तक भी आयुष्य कर्म के अबंधक होते हैं। __इस उपर्युक्त अल्प बहुत्व में वर्तमान में आयुष्य कर्म को बांधने वाले जीवों को आयुष्य के बंधक समझना चाहिये। लब्धि अपर्याप्त अर्थात् अपर्याप्त अवस्था में ही मरने वाले जीवों की अपर्याप्त तथा लब्धि पर्याप्त (पर्याप्त नाम कर्म वाले) जीवों को पर्याप्त कहा गया है। सुप्त जीवों में वर्तमान में अपर्याप्त तथा अपर्याप्त नाम कर्म वाले जीवों का ग्रहण हुआ है। समवहत् जीवों में सातों समुद्घातों में से कोई भी समुद्घात करते हुए जीवों का ग्रहण हुआ है यद्यपि टीकाकार ने मात्र मारणांतिक समुद्घात वालों का ही ग्रहण किया है परन्तु ३६ वें पद की अल्प बहुत्व को देखते हुए यहाँ पर सातों ही समुद्घातों का ग्रहण कर लेना चाहिये।
एकेन्द्रिय आदि जीवों के आयुष्य कर्म को बांधने का जघन्य व उत्कृष्ट कालमान कितना कितना होता है इसका खुलासा छठे व्युत्क्रान्ति पद के सातवें, आठवें द्वार के विवेचन में बताया गया है, जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिये।
॥ पच्चीसवां बंध द्वार समाप्त॥
२६. छब्बीसवां पुद्गल द्वार खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पुग्गला तेलोक्के, उड्डलोयतिरियलोए अणंतगुणा, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया।
भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पुद्गल तीन लोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में अनन्त गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं।
विवेचन - प्रश्न - पुद्गल किसे कहते हैं ?
उत्तर - "पूरण गलन धर्माः पुद्गलाः। स्पर्श रस गन्ध वर्ण - शब्द मूर्त स्वभावकाः। संघात भेद निष्पन्नाः, पुद्गला जिनभाविताः।
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