Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 388
________________ • तीसरा बहुवक्तव्यता पद - बन्ध द्वार ३७५ ********************************* ************** *******-*-*- *41*** ******** अर्थात् - संस्कृत में 'बन्ध बन्धने' धातु है। उससे बन्ध शब्द बनता है। जिसका सामान्य अर्थ है बान्धना। यहाँ पर आठ कर्मों को बान्धना बन्ध कहलाता है। जब तक जीव में कषाय है तब तक वह अपने योग्य कर्म पुद्गलों को बान्धता है। यद्यपि उस बन्ध के चार भेद हैं- यथा - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश। तथापि इन सब का एक में समावेश करके बन्ध शब्द से कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में बंधद्वार के अंतर्गत आयुष्य कर्म के १. बंधक-अबंधक २. पर्याप्तक- अपर्याप्तक ३. सुप्त-जागृत ४. समवहत-असमवहत ५. सातावेदक-असातावेदक ६. इन्द्रियोपयुक्त-नोइन्द्रियोपयुक्त एवं ७. साकारोपयुक्त-अनाकारोपयुक्त, इन सात युगलों के अल्प-बहुत्व का वर्णन किया गया है। इनमें से प्रत्येक युगल का अल्पबहुत्व इस प्रकर है - १. सबसे थोड़े आयुष्य कर्म के बंधक हैं, उनसे अबन्धक संख्यात गुणा हैं क्योंकि वर्तमान भव के अनुभव किये जाते हुए आयुष्य का तीसरा भाग, तीसरे भाग का तीसरा भाग, उसका भी तोसरा भाग आदि शेष रहता है तब जीव परभव का आयुष्य बांधता है अतः दो तृतीयांश अबंधकाल है और एक तृतीयांश बंधकाल है इसलिए आयुष्य के बंधक से अबंधक जीव संख्यात गुणा हैं २. सबसे थोड़े अपर्याप्तक हैं और उनसे पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं, यह सूक्ष्म जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए क्योंकि सूक्ष्म जीवों में बाह्य व्याघातउपक्रम नहीं होता अतः बहुत से सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती है और थोड़े ही जीव अनुत्पत्तिमरण को प्राप्त होते हैं ३. सबसे थोड़े जीव सुप्त हैं और उनसे जागृत जीव संख्यात गुणा हैं। यह भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए क्योंकि अपर्याप्तक जीव सुप्त होते हैं और पर्याप्तक जागृत होते हैं। मूल टीका में कहा है कि - "जम्हा अपज्जत्तगा सुत्ता लब्भंति, केइ अपजत्तगा जेसिं संखिज्जा समया अइया ते य थोवा, इयरे वि थोवगा चेव, सेसा जागरा पज्जत्तगा ते संखिजगुणा". _ अर्थात् - अपर्याप्तक सुप्त होते हैं और उसमें भी कितने अपर्याप्तक जिनका संख्यात समय व्यतीत हो गया है वे थोड़े हैं अन्य भी थोड़े हैं शेष जागृत जीव पर्याप्तक हैं और वे संख्यात गुणा हैं अतः जागृत पर्याप्तक होते हैं इसलिए सुप्त से जागृत संख्यात गुणा कहे गये हैं। ४. समवहत-समुद्घात प्राप्त जीव सबसे थोड़े हैं, क्योंकि यहाँ समवहत में मरण समुद्घात को प्राप्त जीव ग्रहण किये गये हैं और मरण समुद्घात तो मृत्यु के समय ही होता है, अन्य समय में नहीं, उसमें भी सभी जीवों को मरण समुद्घात नहीं होता अतः समवहत जीव सबसे थोड़े हैं, उनसे असमवहत-समुद्घात को नहीं प्राप्त जीव असंख्यात गुणा हैं क्योंकि जीवनकाल बहुत है। ५. सबसे थोड़े जीव सातावेदक-सातावेदनीय के उदय वाले हैं क्योंकि साधारण शरीरी जीव अधिक हैं और प्रत्येक शरीरी जीव थोड़े हैं। साधारण शरीरी अधिकांश जीव असातावेदक होते हैं और थोड़े जीव सातावेदक होते हैं तथा प्रत्येक शरीरी अधिकांश जीव सातावेदक होते हैं और थोड़े जीव असातावेदक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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